महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-47
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
युधिष्ठिर ने कहा- भगवन ! आप साक्षात नारायण, पुरातन ईश्वर और सम्पूर्ण जगत के निवास स्थान हैं । आपको नमस्कार है । अब मैं सम्पूर्ण धर्मों का सार पूर्णतया श्रवण करना चाहता हूं। श्रीभगवान ने कहा- महाप्राज्ञ ! मनुजी ने सृष्टि के आदिकाल में जो धर्म के सार-तत्वका वर्णन किया है, वह पुराणों के अनुकूल और वेद के द्वारा समर्थित है। उसी मनुप्रोक्त धर्म का वर्णन करता हूं, सुनो। अग्निहोत्र द्विज, कपिला गौ, या करने वाला पुरुष, राजा, सन्यायी और महासागर- ये दर्शनमात्र से मनुष्य को पवित्र कर देते हैं, इसलिये सदा इनका दर्शन करना चाहिये। एक गौ, एक वस्त्र, एक शय्या ओर एक स्त्री को कभी अनेक मनुष्यों के अधिकार में नहीं देना चाहिये; क्योंकि वैसा करने पर उस दान का फल दाता को नहीं मिलता। जो ब्राह्मण का, देवता का, दरिद्र का और गुरु का धन यदि चुरा लिया जाय तो वह स्वर्गवासियों को भी नीचे गिरा देता है। जो धर्म का तत्व जानना चाहते हैं, उनके लिये वेद मुख्य प्रमाण हैं, धर्मशास्त्र दूसरा प्रमाण है और लोकाचार तीसरा प्रमाण है। पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक और हिमालय तथा विन्ध्याचल के बीच का जो देश है, उसे आर्यावर्त कहते हैं। सरस्वती और दृषद्वती- इन दोनों देवनदियों के बीच का जो देवताओं द्वारा रचा हुआ देश है, उसे ब्रह्मावर्त कहते हैं। जिस देश में चारों वर्णों तथा उनके अवान्तर भेदों का जो आचार पूर्व परम्परा से चला आता है, वही उनके लिये सदाचार कहलाता है। कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पोचाल और शूरसेन- ये ब्रह्मर्षियों के देश हैं और ब्रह्मावर्त के समीप हैं। इस देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मणों के पास जाकर भूमण्डल के सम्पूर्ण मनुष्यों को अपने-अपने आचरण की शिक्षा लेनी चाहिये। हिमालय और विन्ध्याचल के बीच में कुरुक्षेत्र से पूर्व और प्रयाग से पश्चिम का जो देश है, वह मध्यदेश कहलाता है। जिस देश में कृष्णसार नामक मृग स्वभावत: विचरा करता है, वही यज्ञ के लिये उपयोगी देश है; उससे भिन्न म्लेच्छों का देश है। इन देशों का परिचय प्राप्त करके द्विजातियों को इन्हीं में निवास करना चाहिये; किन्तु शूद्र जीविका न मिलने पर निर्वाह के लिये किसी भी देश में निवास कर सकता है। सदाचार, क्षत्रिय और वैश्यों का गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सब संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियों ओर मन्त्रों के अनुसार कराना चाहिये; क्योंकि संस्कार इहलोक और परलोक में भी पवित्र करने वाला है। गर्भाधान-संस्कार में किये जाने वाले हवन के द्वारा और जातिकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन, वेदोक्त व्रतों के पालन, स्नातक के पालने योग्य व्रत, विवाह, पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान तथा अन्यान्य यज्ञों के द्वारा इस शरीर को परब्रह्मा की प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। जिससे न धर्म का लाभ होता हो, न अर्थ का तथा विद्याप्राप्ति क अनुकूल जो सेवा भी नहीं करता हो, उस शिष्य को विद्या नहीं पढ़नी चाहिये, ठीक उसी तरह जैसे ऊसर खेत में उत्तम बीज नहीं बोया जाता। जिस पुरुष से लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ हो, उस गुरु को पहले प्रणाम करना चाहिये। अपने दाहिने हाथ से गुरु का दाहिना चरण पकड़कर प्रणाम करना चाहिये । गुरु को एक हाथ से कभी प्रणाम नहीं करना चाहिये।
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