महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-15

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अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

संजय का कौरवसभा में अर्जुन का संदेश सुनाना

धृतराष्‍ट्र ने कहा-संजय! मैं इन राजाओंके बीच तुमसे यह पूछ रहा हूं कि अनेक युद्धों के संचालक तथा दुरात्‍माओंके जीवन का नाश करने वाले उदार हृदय महात्‍मा अर्जुनने हमारे लिये कौन-सा संदेश भेजा है । संजय बोला-राजन्! युधिष्ठिर की आज्ञा से युद्ध के लिये उद्यत हुए महात्‍मा अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्‍णके सुनते-सुनते जो बात कही है, उसे दुर्योधन सुनें । अपने बाहुबल को अच्‍छी तरह जानने वाले धीर-वीर किरीटधारी अर्जुन ने भावी युद्ध के लिये उद्यत हो भगवान् श्रीकृष्‍ण के समीप मुझसे इस प्रकार कहा है-‘संजय! सदा मेरे साथ युद्ध करने के लिये डींग हांकता रहता है, उस कटुभाषी दुरात्‍मा सूतपुत्र कर्ण को सुनाकर तथा और भी जो-जो राजालोग पाण्‍डवोंके साथ युद्ध करनेके लिये बुलाये गये हैं, उन सबको सुनाते हुए तुम कौरवों की मण्‍डलीमें मेरेद्वारा कही हुई सारी बातें मन्त्रियों‍सहित धृतराष्‍ट्रपुत्र राजा दुर्योधनसे इस प्रकार कहना, जिससे वह अच्‍छी तरह सुन ले’ । जैसे सब देवता वज्रधारी देवराज इन्‍द्रकी बातें सुनना चाहते हैं, निश्र्चय ही उसी प्रकार समस्‍त सृंजय और पाण्‍डव अर्जुनकी मुझसे कही हुई ओजभरी बातें सुन रहे थे । उस समय गाण्‍डीवधारी अर्जून युद्ध के लिये उत्‍सुक जान पड़ते थे। उनके कमलहदृश नेत्र लाल हो गये थे। उन्‍होंने इस प्रकार कहा-‘यदि दुर्योधन अजगीढकुल निश्र्चय ही धृतराष्‍ट्रके पुत्रोंका पूर्वजन्‍म में किया हुआ कोई ऐसा पापकर्म प्रकट हुआ है, जिसका फल उन्‍हें भोगना है । ‘तभी तो उनका भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, भगवान् श्रीकृष्‍ण, अस्‍त्र-शस्‍त्रोंसे सुसज्जित सात्‍यकि, धृष्‍टद्युम्‍न, शिखण्‍डी तथा इन्‍द्रके समान तेजस्‍वी उन महाराज युधिष्ठिर के साथ युद्ध होने वाला है, जो अनिष्‍टचिंतन करते ही पृथ्‍वी तथा स्वर्गलोक को भी भस्म कर सकते हैं । ‘यदि दुर्योधन चाहता है कि इन सब वीरों के साथ कौरवों का युद्ध हो तो ठीक है, इससे पाण्‍डवों का सारा मनोरथ सिद्ध हो जायगा। तुम केवल पाण्‍डवों के लाभ के लिये संधि कराने या आधा राज्य दिलाने की चेष्‍टा न करना। उस दशा में यदि ठीक समझों तो उससे कह देना- ‘दुर्योधन! तुम युद्धभूमि में ही उतरो’ । ‘धर्मात्‍मा पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिरने वनमें निर्वासित होकर जिस दु:खशय्‍यापर शयन किया है, दुर्योधन अपने प्राणों-का त्‍याग करके उससे भी अधिक दु:खदायिनी और अनर्थ-कारिणी मूत्‍युकी अंतिम शय्‍याको ग्रहण करे । ‘अन्‍यायपूर्ण बर्ताव करनेवाले दुरात्‍मा दुर्योधनको उचित है कि वह लज्‍जा, ज्ञान, तपस्‍या, इन्द्रियसंयम, शौर्य, धर्मरक्षा आदि गुणों तथा धनके द्वारा कोरव-पाण्‍डवों-पर अधिकार प्राप्‍त करे (सद्णोद्वारा सबके हृदयको जीते, अन्‍यायसे शासन करना असम्‍भव है) । ‘हमारे महाराज युधिष्ठिर नम्रता, सरलता, तप, इन्द्रिय-संयम, धर्मरक्षा ओर बल-इन सभी गुणोंसे सम्‍पन्‍न हैं। वे बहुत दिनों से अनेक प्रकारके क्‍लेश उठाते हुए भी सदा सत्‍य ही बोलते है तथा कौरवों के कपटपूर्ण व्‍यवहारों तथा वचनों को सहन करते रहते है । ‘परंतु अपने मन को शुद्ध एवं संयत रखने वाले ज्येष्‍ठ पाण्‍डव युधिष्ठिर जिस समय उत्तेजित हो अनेक वर्षों से दबे हुए अपने अत्यन्त भयंकर क्रोध को कौरवों पर छोडेंगे, उस समय जो भयानक युद्ध होगा, उसे देखकर दुर्योधन को पछताना पडे़गा । ‘जैसे ग्रीष्‍मॠतु में प्रज्वलित अग्नि सब ओर से धधक उठती और घास-फूस एवं जंगलों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकारक्रोध से तमतमाये हुए युधिष्ठिर दुर्योधन की सेना को अपने दृष्टिपातमात्र से दग्ध कर देंगे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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