महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 86-96
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
युद्ध में भगवान् श्रीकृष्ण का वह भयंकर पराक्रम देखकर देवताओं ने वहां इन्हें इस प्रकार वर दिये- ‘केशव! युद्ध करते समय आपको कभी थकावट न हो, आकाश और जल में भी आप अप्रतिहत गति से विचरें और आपके अङ्गों में कोई भी अस्त्र-शस्त्र चोट न पहुंचा सके।’ इस प्रकार वर पाकर श्रीकृष्ण पूर्णत: कृतकार्य हो गये हैं। इन असीम शक्तिशाली महाबली वासुदेव में समस्त गुण-सम्पत्ति सदैव विद्यमान है । ‘ऐसे अनन्त पराक्रमी और अजेय श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन जीत लेने की आज्ञा करता है। वह दुरात्मा सदैव इनका अनिष्ट करने के विषय में सोचता रहता हैं, परंतु हम लोगों की ओर देखकर उसके इस अपराध को भी ये भगवान् सहते चले जा रहें हैं । ‘दुर्योधन मानता है कि मुझ में और श्रीकृष्ण में हठात् कलह करा दिया जा सकता है। पाण्डवों का श्रीकृष्ण के प्रति जो ममत्व (अपनापन) है, उसे मिटा दिया जा सकता है; परंतु कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि में पहुंचने पर उसे इन सब बातों का ठीक-ठीक पता चल जायगा । ‘मैं शान्तनुनन्दन महाराज भीष्म को, आचार्य द्रोण को, गुरूभाई अश्र्वत्थामा को और जिनका सामना कोई नहीं कर सकता, उन वीरवर कृपाचार्य को भी प्रणाम करके राज्य पाने की इच्छा लेकर अवश्य युद्ध करूंगा । ‘जो पापबुद्धि मानव पाण्डवों के साथ युद्ध करेगा, धर्म की दृष्टि से उसकी मृत्यु निकट आ गयी है, ऐसा मेरा विश्र्वास है। कारण कि इन क्रूर स्वभाव वाले कौरवों ने हम सब लोगों को कपटद्यूत में जीतकर बारह वर्षों के लिये वन में निर्वासित कर दिया था; यद्यपि हम भी राजा के ही पुत्र थे । ‘हम वन में दीर्घकाल तक बडे़ कष्ट सहकर रहे हैं और एक वर्ष तक हमें अज्ञातवास करना पड़ा है। ऐसी दशा में पाण्डवों के जीते-जी वे कौरव अपने पदों पर प्रतिष्ठित रहकर कैसे अनान्द भोगते रहेंगे? ‘यदि इन्द्र आदि देवताओं की सहायता पाकर भी धृतराष्ट्र पुत्र हमें युद्ध में जीत लेंगे तो यह मानना पडे़गा कि धर्म की अपेक्षा पापाचार का ही महत्त्व अधिक है और संसार से पुण्य-कर्म का अस्तित्व निश्र्वय ही उठ गया । ‘यदि दुर्योधन मनुष्य को कर्मों के बन्धन से बंधा हुआ नहीं मानता है अथवा यदि वह हम लोगों को अपने से श्रेष्ठ तथा प्रबल नहीं समझता है, तो भी मैं यह आशा करता हूं कि भगवान् श्रीकृष्ण को अपना सहायक बनाकर मैं दुर्योधन को उसके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंगा । ‘राजन्! यदि मनुष्य का किया हुआ यह पापकर्म निष्फल नहीं होता अथवा पुण्यकर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता तो मैं दुर्योधन के वर्तमान और पहले के किये हुए पापकर्म का विचार करके निश्र्वयपूर्वक कह सकता हूं कि धृतराष्ट्र पुत्र की पराजय अनिवार्य है और इसी में जगत् की भलाई है । ‘कौरवों! मैं तुम लोगों के समक्ष यह स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूं कि धृतराष्ट्र के पुत्र यदि युद्धभूमि में उतरे तो जीवित नहीं बचेंगे। कौरवों के जीवन की रक्षा तभी हो सकती है, जब वे युद्ध से दूर रहें। युद्ध छिड़ जाने पर तो उनमें से कोई भी यहां शेष नहीं रहेगा ।
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