महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 97-109
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
‘मैं कर्णसहित धृतराष्ट्र पुत्रों का वध करके कुरूदेश का सम्पूर्ण राज्य जीत लूंगा, अत: तुम्हारा जो-जो कर्तव्य शेष हो, उसे पूरा कर लो। अपने वैभव के अनुसार प्रियतमा पत्नियों के साथ सुख भोग लो और अपने शरीर के लिये भी जो अभीष्ट भोग हो, उनका उपभोग कर लों । ‘हमारे पास कितने ही ऐसे वृद्ध ब्राह्मण विद्यमान हैं, जो अनेक शास्त्रों के विद्वान्, सुशील, उत्तम कुल में उत्पन्न, वर्ष के शुभाशुभ फलों को जानने वाले, ज्योतिषशास्त्र के मर्मज्ञ तथा ग्रह-नक्षत्रों के योगफल का निश्र्वित रूप से ज्ञान रखने वाले हैं । ‘वे दैव सम्बन्धी उन्नति एवं अवनति के फलदायक रहस्य बता सकते हैं। प्रश्नों के अलौकिक ढ़ग से उत्तर देते हैं, जिसमें भविष्य घटनाओं का ज्ञान हो जाता है। वे शुभाशुभ फलों का वर्णन करने के लिये सर्वतोभद्र आदि चक्रों का भी अनुसंधान करते हैं और मुहूर्तशास्त्र के तो वे पण्डित ही हैं। वे सब लोग निश्र्वित रूप से यह निवेदन करते हैं कि कौरवों और सृंजयवश के लोगों का बड़ा, भारी संहार होने वाला है और इस महायुद्ध में पाण्डवों की विजय होगी । ‘अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर मानते हैं, मैं अपने शत्रुओं का दमन करने में निश्र्चय सफल होऊंगा। वृष्णिवंश के पराक्रमी वीर भगवान् श्रीकृष्ण को भी सारी विद्याओं का अपरोक्ष ज्ञान है। वे भी हमारे इस मनोरथ के सिद्ध होने में कोई संदेह नहीं देखते हैं । ‘मैं भी स्वयं प्रमादशून्य होकर अपनी बुद्धि से भावी का ऐसा ही स्वरूप देखता हूं। मेरी चिरंतन दृष्टि कभी तिरोहित नहीं होती। उसके अनुसार मैं यह निश्र्चित रूप से कह सकता हूं कि युद्ध भूमि में उतरने पर धृतराष्ट्र के पुत्र जीवित नहीं रह सकते ।।१०१।। ‘गाण्डीव धनुष बिना स्पर्श किये ही तना जा रहा है, मेरे धनुष की डोरी बिना खींचे ही हिलन लगी है और मेरे बाण बार-बार तरकस से निकलकर शत्रुओं की ओर जाने के लिये उतावले हो रहे हैं । ‘चमचमाती हुई तलवार म्यानसे इस प्रकार निकल रही है, मानो सर्प अपनी पुरानी केंचुल छोड़कर चमकने लगा हो तथा मेरी ध्वजापर यह भयंकर वाणी गूंजती रहती है कि अर्जुन! तुम्हारा रथ युद्ध के लिये कब जाता जायगा । ‘रात में गीदड़ों के दल कोलाहल मचाते हैं,राक्षस आकाश-से पृथिवीपर टूटे पड़ते हैं तथा हिरण, सियार, मोर, कौआ, गीध, बगुला और चीते मेरे रथ के समीप दौड़े आते हैं । ‘श्वेत घोड़ो से जुते हुए मेरे रथ को देखकर सुवर्णपत्र नामक पक्षी पीछे से टूटे पड़ते हैं। इससे जान पड़ता है, मैं अकेला बाणों की वर्षा करके समस्त राजाओं और योद्धाओं को यमलोक पहुंचा दूंगा । ‘जैसे गर्मी में प्रज्वलित हुई आग जब वन को जलाने लगती है, तब किसी भी वृक्ष को बाकी नहीं छोड़ती, उसी प्रकार मैं शत्रुओं के वध के लिये सुसज्जित हो अस्त्रसंचालन की विभिन्न रीतियों का आश्रय ले स्थूणाकर्ण, महान् पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र तथा जिसे इन्द्र ने मुझे दिया था, उस इन्द्रास्त्र का भी प्रयोग करूंगा और वेगशाली बाणों की वर्षा करके इस युद्ध में किसी-को भी जीवित नहीं छोडूंगा। ऐसा करनेपर ही मुझे शांति मिलेगी। संजय! तुम उनसे स्पष्ट कह देना कि मेरा यह दृढ़ और उत्तम निश्र्चयहै । ‘सूत! जो पाण्डव समरभूमि में इन्द्र आदि समस्त देवताओं को भी पाकर उन्हें पराजित किये बिना नहीं रहेंगे, उन्हीं हम पाण्डवों के साथ यह दुर्योधन हठपूर्वक युद्ध करना चाहता है, इसका मोह तो देखो । ‘फिर भी मैं चाहता हूं कि बूढ़े पितामह शांतनुनंदन भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्र्वत्थामा और बुद्धिमान् विदुर-ये सब लोग मिलकर जैसा कहें, वही हो। समस्त कौरव दीर्घायु बने रहें’ ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अंतर्गत यानसंधिपर्व में अर्जुनवाक्यनिवेदनविषयक अड़तालीसावं अध्याय पूरा हुआ ।
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