महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-16

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त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

कौरव-सभा में धृतराष्‍ट्र का युद्ध से भय दिखाकर शान्ति के लिये प्रस्ताव करना

धृतराष्‍ट्र बोले- संजय! जैसे समस्त पाण्‍डव पराक्रमी और विजय के अभिलाषी हैं, उसी प्रकार उनके सहायक भी विजय के लिये कटिबद्ध तथा उनके लिये अपने प्राण निछावर करने को तैयार हैं। तुमने ही मेरे निकट पराक्रमशाली पाञ्चाल, केकय, मत्सय, मागध तथा वत्सेदशीय उत्कृष्‍ट भूमिपालों के नाम लिये हैं- (ये सभी पाण्‍डवों की विजय चाहते हैं)। इनके सिवा जो इच्छा करते ही इन्द्र आदि देवताओं सहित इन सम्पूर्ण लोकों को अपने वश में कर सकते हैं, वे जगत्स्त्रष्‍टा महाबली भगवान् श्रीकृष्‍ण भी पाण्‍डवों को विजय दिलाने का दृढ़ निश्‍चय कर चुके हैं। शिनि के पौत्र सात्यकिने थोडे़ ही समय में अर्जुन से उनकी सारी अस्त्रविद्या सीख ली थी। इस युद्ध में वे भी बीज की भांति बाणों को बोते हुए पाण्‍डव पक्ष की ओर से खडे़ होंगे। उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता और क्रूरतापूर्ण पराक्रम प्र‍कट करने वाला पाञ्चाल राजकुमार महारथी धृष्‍टद्युम्न भी मेरी सेनाओं में घुसकर युद्ध करेगा। तात संजय! मुझे युधिष्ठिर के क्रोध से, अर्जुन के पराक्रम से, दोनों भाई नकुल और सहदेव से तथा भीमसेन से बड़ा भय लगता हैं। संजय! इन नरेशों के द्वारा मेरी सेना के भीतर जब अलौकिक अस्त्रों का जाल-सा बिछा दिया जायगा, तब मेरे सैनिक उसे पार नहीं कर सकेंगे; इसीलिये मैं बिलख रहा हूं।
पाण्‍डुनन्दन युधिष्ठिर दर्शनीय, मनस्वी, लक्ष्‍मीवान्, ब्रह्मर्षियों के समान तपस्वी, मेधावी, सुनिश्चित बुद्धि से युक्त, धर्मात्मा, मित्रों तथा मन्त्रियों से सम्पन्न, युद्ध के लिये उद्योगशील सैनिकों से संयुक्त, महारथी भाइयों और वीरशिरोमणि श्र्वशुरों से सु‍रक्षित, धैर्यवान्, मन्त्रणा को गुप्त रखने वाले, पुरूषों में सिंह के समान पराक्रमी, दयालु, उदार, लज्जाशील, यथार्थ पराक्रम से सम्पन्न, अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, मन को वश में रखने वाले, वृद्धसेवी तथा जितेन्द्रीय हैं। इस प्रकार सर्वगुणसम्पन्न और प्रज्वलित अग्नि के समान ताप देने वाले उन युधिष्ठिर के सम्मुख युद्ध करने के लिये कौन मुर्ख जा सकेगा? कौन अचेत एवं मरणासन्न मनुष्‍य पतंगों की भांति दुर्निवार पाण्‍डवरूपी अग्नि में जान-बूझकर गिरेगा? राजा युधिष्ठिर सूक्ष्‍म और एक स्थान में अवरूद्ध अग्नि के समान हैं। मैंने मिथ्‍या व्यवहार से उनका तिरस्कार किया है, अत: वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रों का अवश्‍य विनाश कर डालेंगे। कौरवों में पाण्‍डवों के साथ युद्ध न होना ही अच्छा मानता हुं। तुम लोग इसे अच्छी तरह समझ लो। यदि युद्ध हुआ तो समस्त कुरूकुल का विनाश अवश्‍यम्भावी है। मेरी बुद्धि का यही सर्वोत्तम निश्‍चय है। इसी से मेरे मन को शान्ति मिलती है। यदि तुम्हें भी युद्ध न होना ही अभीष्‍ट हो तो हम शान्ति के लिये प्रयत्न करें। युधिष्ठिर हमें (युद्ध की चर्चा से) क्लेश में पडे़ देख हमारी उपेक्षा नहीं कर सकते। वे तो मुझे ही अधर्मपूर्वक कलह बढा़ने में कारण मानकर मेरी निन्दा करते हैं (फिर मेरे ही द्वारा शान्ति-प्रस्ताव उपस्थित किये जाने पर वे क्यों नहीं सहमत होंगे?)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृतराष्‍ट्रवा‍क्यविषयक तिरपनवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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