महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-13
षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्र्वों का तथा युधिष्ठिर आदि के घोड़ों का वर्णन
दुर्योधन ने पूछा-संजय! यह तो बताओ, सात अक्षौहिणी सेना पाकर राजाओं सहित कुंतीपुत्र युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा से अब कौन-सा कार्य करना चाहते हैं ?
संजय ने कहा-राजन्! युधिष्ठिर युद्ध की अभिलाषा लेकर मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्न हो रहे हैं। भीमसेन, अर्जुन, तथा दोनों भाई नकुल-सहदेव भी भयभीत नहीं हैं। कुंतीकुमार अर्जुन ने तो अस्त प्रयोग संबंधी मन्त्र की परीक्षा के लिये अपने दिव्य रथकी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए उसे जोत रक्खा था। उस समय स्वर्णमय कवच धारण किये अर्जुन हमें बिजली के प्रकाश से सुशोभित मेघ के समान दिखायी दे रहे थे। उन्होंने सब ओर से उन मन्त्रों का सम्यक् चिंतन करके हर्ष से उल्लसित होकर मुझसे कहा-। ‘संजय! हम लोग युद्ध में अवश्य विजयी होंगे।उस विजय का यह पूर्वचिन्हृ अभी से प्रकट हो रहा है। तुम भी देख लो’। राजन्! अर्जुन ने मुझसे जैसा कहा था, वैसाही मैं भी समझता हूं। दुर्योधन बोला-संजय! तुम तो जूए में हारे हुए कुंतीपुत्र को अभिनंदन करते हुए उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। बताओ तो सही, अर्जुन के रथ में कैसे घोड़े और कैसे ध्वज हैं ?
संजय ने कहा-प्रजानाथ! विश्र्वकर्मा त्वष्टा तथा प्रजापति ने इन्द्र के साथ मिलकर अर्जुन के रथ की ध्वजा में अनेक प्रकार के रूपों की रचना की है। उन तीनों ने देवमाया के द्वारा उस ध्वज में छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की बहुमूल्य एवं दिव्य मूर्तियों का निर्माण किया है। भीमसेन के अनुरोध की रक्षा के लिये पवन नंदन हनुमानजी उस ध्वज में युद्ध के समय अपने स्वरूप को स्थापित करेंगे। उस ध्वज ने एक योजन तक सम्पूर्ण दिशाओं तथा अगल-बगल एवं ऊपर के अवकाश को व्याप्त कर रक्खा था। विश्र्वकर्मा ने ऐसी माया रच रक्खी है कि वह ध्वज वृक्षों से आवृत अथवा अवरूद्ध होने पर भी कहीं अटकता नहीं है। जैसे आकाश में बहुरंगा इन्द्रधनुष प्रकाशित होता है ओर यह समझ में नहीं आता कि वह क्या है? ठीक ऐसा ही विश्र्वकर्मा का बनाया हुआ वह रंग-बिरंगा ध्वज है। उसका रूप अनेक प्रकार का दिखायी देता है । जैसे अग्निसहित धूम विचित्र तेजोमय आकार और रंग धारण करके सब ओर फैलकर ऊपर आकाश की ओर बढ़ता जाता है, उसी प्रकार विश्र्वकर्मा ने उस ध्वज का निर्माण किया है। उसके कारण रथपर कोई भार नहीं बढ़ता है और न उसकी गति में कहीं कोई रूकावट ही पैदा होती है। अर्जुन के उस रथ में वायु के समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम जाति के श्र्वेत अश्र्व जुते हुए हैं, जिन्हें गन्धर्वराज चित्ररथ ने दिया था। नरेन्द्र! पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग आदि किसी भी स्थान में उन अश्र्वों की पूर्ण गति क्षीण या अवरूद्ध नहीं होती है। उस रथ में पूरे सौ घोड़े सदा जुते रहते हैं। उनमें से यदि कोई मारा जाता है तो पहले के दिये हुए वर के प्रभाव-से नया घोड़ा उत्पन्न होकर उसके स्थान की पूर्ति कर देता है।
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