महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रिनवतितम (93) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण का कौरव-पांडवों में संधिस्थापन के प्रयत्न का औचित्य बताना

वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! विदुर का यह प्रेम और विनय से युक्त वचन सुनकर पुरुषोत्तम भगवान मधुसूदन ने यह बात काही। श्रीभगवान बोले – विदुरजी ! एक महान् बुद्धिमान पुरुष जैसी बात कह सकता है, विद्वान पुरुष जैसी सलाह दे सकता है, आप-जैसे हितैषी पुरुष के लिए मेरे-जैसे सुहृद से जैसी बात कहनी उचित है और आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त सत्य वचन निकलना चाहिए, आपने माता-पिता के समान स्नेहपूर्वक वैसी ही बात मुझसे कही है। आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वही सत्या, समायोचित और युक्तिसंगत है । तथापि विदुरजी ! यहाँ मेरे आने का जो कारण है, उसे सावधान होकर सुनिए। विदुरजी ! मैं धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रिय योद्धाओं के वैरभाव – इन सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। अश्व, रथ और हाथियों सहित यह सारी पृथ्वी विनष्ट होना चाहती है । जो इसे मृत्युपाश से छुड़ाने का प्रयत्न करेगा, उसे ही उत्तम धर्म प्राप्त होगा। मनुष्य यदि अपनी शक्तिभर किसी धर्म कार्य को करने का प्रयत्न करते हुए भी उसमें सफलता न प्राप्त कर सके, तो भी उसे उसका पुण्य तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । इस विषय में मुझे संदेह नहीं है। इसी प्रकार यदि मनुष्य मन से पाप का चिंतन करते हुए भी उसमें रुचि न होने के कारण उसे क्रिया द्वारा संपादित न करे, तो उसे उस पाप का फल नहीं मिलता है । ऐसा धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं। अत: विदुरजी ! मैं युद्ध में मर मिटने को उद्यत हुए कौरवों तथा सुंजयों में संधि कराने का निश्चलभाव से प्रयत्न करूंगा। यह अत्यंत भयंकर आपति कर्ण और दुर्योधन द्वारा ही उपस्थित की गयी है, क्योंकि ये सभी नरेश इन्हीं दोनों का अनुसरण करते हैं । अत: इस विपत्ति का प्रादुर्भाव कौरव पक्ष में ही हुआ है। जो किसी व्यसन या विपत्ति में पड़कर क्लेश उठाते हुए मित्र को यथाशक्ति समझा-बुझाकर उसका उद्धार नहीं करता है, उसे विद्वान पुरुष निर्दय एवं क्रूर मानते हैं। जो अपने मित्र को उसकी चोटी पकड़कर भी बुरे कार्य से हटाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता है, वह किसी की निंदा का पात्र नहीं होता है। अत: विदुरजी ! दुर्योधन और उसके मंत्रियों को मेरी शुभ, हितकर, युक्तियुक्त तथा धर्म और अर्थ के अनुकूल बात अवश्य माननी चाहिए। मैं तो निष्कपट भाव से धृतराष्ट्र के पुत्रों, पांडवों तथा भूमंडल के सभी क्षत्रियों के हित का ही प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार हितसाधन के लिए प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मुझ पर शंका करेगा तो मेरे मन को तो प्रसन्नता ही होगी और मैं अपने कर्तव्य के भार से उऋण हो जाऊंगा। भाई-बंधुओं में परस्पर फूट होने का अवसर आने पर जो मित्र सर्वथा प्रयत्न करके उनमें मेल कराने के लिए मध्यस्थता नहीं करता, उसे विद्वान पुरुष मित्र नहीं मानते हैं। संसार के पापी, मूढ़ और शत्रुभाव रखनेवाले लोग मेरे विषय में यह न कहें कि श्रीकृष्ण ने समर्थ होते हुए भी क्रोध से भरे हुए कौरव-पांडवों को युद्ध से नहीं रोका ( इसलिए भी मैं संधि कराने का प्रयत्न करूंगा )।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।