महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 92 श्लोक 16-30
द्विनवतितम (92) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
'श्रीकृष्ण ! वे सभी पापपूर्ण विचार लेकर बैठे हुए हैं; अत: उनके बीच में आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता है । वे सब के सब दुर्बुद्धि, अशिष्ट और दुष्टचित हैं । उनकी संख्या भी बहुत हैं । श्रीकृष्ण ! आप उनके बीच में जाकर कोई प्रतिकूल बात कहें, यह मुझे ठीक नहीं जान पड़ता।' दुर्योधन ने कभी वृद्ध पुरुषों का सेवन नहीं किया है । वह राजलक्ष्मी के घमंड से मोहित है । इसके सिवा उसे अपनी युवावस्था पर भी गर्व है और वह पांडवों के प्रति सदा अमर्ष में भरा रहता है । अत: आपकी हितकर बातें भी वह नहीं मानेगा। 'माधव ! दुर्योधन के पास प्रबल सैन्यबल है । इसके सिवा आप पर उसे महान् संदेह है । अत: आप यदि उससे अच्छी बात कहेंगे, तो भी वह आपकी बात नहीं मानेगा। 'जनार्दन ! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को यह दृढ़ विश्वास है कि देवताओं सहित इन्द्र भी इस समय युद्ध के द्वारा हमारी इस सेना को परास्त नहीं कर सकते। 'जो इस प्रकार निश्चय किए बैठे हैं और काम-क्रोध के ही पीछे चलनेवाले हैं, उनके प्रति आपका युक्तियुक्त एवं सार्थक वचन भी निरर्थक एवं असफल हो जाएगा। 'रथियों और घुड़सवारों से युक्त हाथियों की सेना के बीच में खड़ा होकर भय से रहित हुआ मंदबुद्धि मूढ़ दुर्योधन यह समझता है कि यह सारी पृथ्वी मैंने जीत ली। 'धृतराष्ट्र का वह ज्येष्ठ पुत्र भूमंडल का शत्रुरहित साम्राज्य पाने की आशा रखता है । वह मन ही मन यह संकल्प भी करता है कि जुए में प्राप्त हुआ यह धन एवं राज्य अब मेरे ही अधिकार में आबद्ध रहे; अत: उसके प्रति केवल संधि का प्रयत्न सफल न होगा। 'जान पड़ता है, अब यह पृथ्वी काल से परिपक्व होकर नष्ट होनेवाली है; क्योंकि राजाओं के साथ भूमंडल के समस्त क्षत्रिय योद्धा दुर्योधन के लिए पांडवों के साथ युद्ध करने की इच्छा से यहाँ एकत्र हुए हैं। ' श्रीकृष्ण ! ये सबके सब वे ही भूपाल हैं, जिन्होनें पहले आपके साथ वैर ठाना था और जिनका सार-सर्वस्व आपने हर लिया था । ये लोग आपके भय से धृतराष्ट्र पुत्रों की शरण में आए हैं तथा कर्ण के साथ संगठित हो वीरता दिखाने को उद्यत हुए हैं। 'ये सब योद्धा दुर्योधन के साथ मिल गए हैं और अपने प्राणों का मोह छोड़कर हर्ष एवं उत्साह के साथ पांडवों से युद्ध करने को तैयार हैं। दशार्हवंशी वीर ! ऐसे विरोधियों के बीच में यदि आप जाने को उद्यत हैं तो मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। 'शत्रुसुदन ! जहां दुष्टतापूर्ण विचार लिए बहुसंख्यक शत्रु बैठे हो, वहाँ उनके बीच आप कैसे जाना चाहते हैं ? शत्रुहंता महाबाहु श्रीकृष्ण ! यद्यपि सम्पूर्ण देवता भी सर्वथा आपके सामने टिक नहीं सकते हैं तथा आपका जो प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धिबल है, उसे भी मैं जानता हूँ, तथापि माधव ! पांडवों पर जो मेरा प्रेम है, वही और उससे भी बढ़कर आपके प्रति है । अत: प्रेम, अधिक आदर और सौहार्द से प्रेरित होकर मैं यह बात कह रहा हूँ। 'कमलनयन ! आपके दर्शन से आपके प्रति मेरा जो प्रेम उमड़ आया है, उसका आपसे क्या वर्णन किया जाये ? आप समस्त देहधारियों के अन्तर्यामी आत्मा है ( अत: स्वयं ही सब कुछ देखते और जानते हैं )"।
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