महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 47-66

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त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 47-66 का हिन्दी अनुवाद

पार्थ ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन क्षत्रिय कर सकता है । तुमने अपने अस्त्रों के बल और तेज से शूरवीर राजाओं का वध करके दुर्योधन की विशाल सेना को रोककर सिन्‍धुराज जयद्रथ को मार गिराया । पार्थ ! सब राजा जानते हैं कि सिंधुराज जयद्रथ का वध एक आश्चर्यभरी घटना है, किंतु तुमसे ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्‍योंकि तुम असाधारण महारथी हो । रणभूमि में तुम्‍हें पाकर सारा क्षत्रिय समाज एक दिन में नष्ट हो सकता है, ऐसा कहना में युक्तिसंगत मानता हूँ । मेरी तो ऐसी ही धारणा है । कुन्‍तीनन्‍दन ! जब भीष्‍म और द्रोणाचार्य युद्ध में मार डाले गये, तभी से मानो दुर्योधन की इस भयंकर सेना के सारे वीर मारे गये – इसका सर्वस्‍व नष्ट हो गया । इसके प्रधान प्रधान योद्धा नष्‍ट हो गये । घोड़े, रथ और हाथी भी मार डाले गये । अब यह कौरव सेना सूर्य, चन्‍द्रमा और नक्षत्रों से रहित आकाश के समान श्रीहीन जान पड़ती है । भयंकर पराक्रमी पार्थ ! रणभूमि में विध्‍वंस को प्राप्त हुई यह कौरव सेना पूर्वकाल में इन्‍द्र के पराक्रम से नष्ट हुई असुरों की सेना के समान प्रतीत होती है । इन कौरव सैनिकों से अश्वत्‍थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्‍य और कृपाचार्य – ये पाँच प्रमुख महारथी मरने से बच गये हैं । नरव्‍याघ्र ! आज इन पाँचों महारथियों को मारकर तुम शत्रुहीन हो द्वीपों और नगरों सहित यह सारी पृथ्‍वी राजा युधिष्ठिर को दे दो । अमित पराक्रम और कान्ति से सम्‍पन्‍न कुन्‍ती कुमार युधिष्ठिर आज आकाश, जल, पाताल, पर्वत और बड़े बड़े वनों सहित इस वसुधा को प्राप्त कर लें । जैसे पूर्वकाल में भगवान् विष्‍णु ने दैत्‍यों और दानवों को मारकर यह त्रिलोकी इन्‍द्र को दे दी थी, उसी प्रकार तुम यह पृथ्‍वी राजा युधिष्ठिर को सौंप दो । जैसे भगवान् विष्‍णु के द्वारा दानवों के मारे जाने पर देवता प्रसन्‍न होते हैं, उसी प्रकार आज तुम्‍हारे द्वारा शत्रुओं का संहार हो जाने पर समस्‍त पांचाल आनन्दित हो उठें । कमल नयन नरश्रेष्ठ अर्जुन ! मनुष्‍यों में श्रेष्ठ गुरू द्रोणाचार्य का सम्‍मान करते हुए तुम्‍हारे ह्रदय में यदि अश्वत्‍थामा के प्रति दया है, अथवा आचार्योचित गौरव के कारण कृपाचार्य के प्रति कृपाभाव है, यदि माता कुन्‍ती के अत्‍यन्‍त पूजनीय बन्‍धु बान्‍धवों के प्रति आदर का भाव रखते हुए तुम कृतवर्मा पर आक्रमण करके उसे यमलोक भेजना नहीं चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रदेशीय जनता के अधिपति राजा शल्‍य को भी तुम दयावश मारने की इच्‍छा नहीं रखते तो न सही, किंतु पाण्‍डवों के प्रति सदा पापबुद्धि रखने वाले इस अत्‍यन्‍त नीच कर्ण को आज अपने पैने बाणों से मार ही डालो । यह तुम्‍हारे लिये पुण्‍य कर्म होगा । इस विषय में कोई विचार करने की आवश्‍यकता नहीं है । मैं भी तुम्‍हें इसके लिये आज्ञा देता हूँ, अत: इसमें कोई दोष नहीं है । निष्‍पाप अर्जुन ! रात्रि के समय पुत्रसहित तुम्‍हारी माता कुन्‍ती को जला देने और तुम सब लोगों के साथ जुआ खेलने के कार्य में जो दुर्योधन की प्रवृत्ति हुई थी, उन सब षड्यन्‍त्रों का मूल कारण यह दुष्टात्‍मा कर्ण ही था । दुर्योधन को सद से ही यह विश्‍वास बना हुआ है कि कर्ण मेरी रक्षा कर लेगा; इसीलिये वह आवेश में आकर मुझे भी कैद करने की तैयारी करने लगा था । मानद ! धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन का यह दृढ़ विचार है कि कर्ण रणभूमि में कुन्‍ती के सभी पुत्रों को नि:संदेह जीत लेगा ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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