महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 67-86
त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: कर्ण पर्व
कुन्तीनन्दन ! तुम्हारे बल को जानते हुए भी दुर्योधन ने कर्ण का भरोसा करके ही तुम्हारे साथ युद्ध छेड़ना पसंद किया है । कर्ण सदा ही यह कहता रहता है कि मैं युद्ध में एक साथ आये हुए समस्त कुन्ती पुत्रों तथा वसुदेव नन्दन महारथी श्रीकृष्ण को भी जीत लूँगा । भारत ! अत्यन्त खोटी बुद्धि वाले दुरात्मा दर्योधन का उत्साह बढ़ाता हुआ कर्ण राजसभा में उपुर्यक्त बातें कहकर गर्जता रहता है, इसीलिये आज तुम उसे मार डालो । दुर्योधन ने तुम लोगों के साथ जो-जो पापपूर्ण बर्ताव किया है, उन सबें पापबुद्धि दुष्टात्मा कर्ण ही प्रधान कारण है । सखे ! सुभद्रा का वीरपुत्र अभिमन्यु साँड के समान बड़े-बड़े नेत्रों से सुशोभित तथा कुरूकुल एवं वृष्णिवंश के यश को बढ़ाने वाला था । उसके कंधे साँड के कंधों के समान मांसल थे । वह दोणाचार्य, अश्वत्थामा और कृपाचार्य आदि नरश्रेष्ठ वीरों को पीड़ा दे रहा था । हाथियों को महावतों और सवारों से, महारथियों को रथों से, घोड़ों को सवारों से तथा पैदल सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र एवं जीवन से वंचित कर रहा था । सेनाओं का विध्वंस और महारथियों को व्यथित करके वह मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को यमलोक भोज रहा था । बाणों द्वारा शत्रुसेना को दग्ध सी करके आते हुए सुभद्रा कुमार को जो दुर्योधन के छ: क्रूर महारथियों ने मार ड़ाला और उस अवस्था में मारे गये अभिमन्यु को जो मैंने अपनी आँखों से देखा, वह सब मेरे अंकों को दग्ध किये देता है । प्रभो ! मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि उसमें भी दुष्टात्मा कर्ण का ही द्रोह काम कर रहा था । रणभूमि में अभिमन्यु के सामने खड़े होने की शक्ति कर्ण में नहीं रह गयी थी । वह सुभद्राकुमार के बाणों से छिन्न-भिन्न हो खून से लथपथ एवं अचेत हो गया था । वह क्रोध से जलकर लम्बी साँख खींचता हुआ अभिमन्यु के बाणों से पीडित हो युद्ध से मुँह मोड़ चुका था । अब उसके मन में भाग जाने का ही उत्साह था । वह जीवन से निराश को चुका था । युद्धस्थल में प्रहारों के कारण अधिक क्लान्त हो जाने से वह व्याकुल होकर खड़ा रहा । तदनन्तर समरांगण में द्रोणाचार्य का समयोचित क्रूर वचन सुनकर कर्ण ने अभिमन्यु के धनुष को काट ड़ाला । उसके द्वारा धनुष कट जाने पर रणभूमि में शेष पाँच महारथी, जो शठतापूर्ण बर्ताव करने में प्रवीण थे, बाणो की वर्षा द्वारा अभिमन्यु को घायल करने लगे । उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्राय: सभी को बड़ा दु:ख हुआ । केवल दुष्टात्मा कर्ण और दुर्योधन ही जोर-जोर से हँसे थे । इसके सिवा, कर्ण ने भरी सभा में पाण्डवों और कौरवों के सामने एक क्रूर मनुष्य क भाँति द्रौपदी के प्रति इस तरह कठोर वचन कहे थे ।कृष्णे ! पाण्डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये । पृथुश्रोणा ! अब तू दूसरा पति वरण कर ले । मृदुभाषिणी ! आज से तू राजा धृतराष्ट्र की दासी हुई; अत: राजमहल में प्रवेश कर । टेढ़ी बरौनियों वाली कृष्णे ! पाण्डव अब तेरे पति नहीं रहे । वे तुझ पर किसी तरह कोई अधिकार नहीं रखते ।सुन्दरी पांचाल राजकुमारी ! अब तू दासों की भार्या और स्वयं भी दासी है । आज एकमात्र राजा दुर्योधन समस्त भूमण्डल के स्वामी मान लिये गये हैं ।
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