महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 110 श्लोक 85-103
दशाधिकशततम (110) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
आज किसी प्रकार मेरी बुद्धि युद्ध में नहीं लग रही है। इधर द्रोणाचार्य भी युद्धस्थल में बड़े वेग से आक्रमण करके मेरी सेना को पीड़ित कर रहे है। महाबाहो ! विप्रवर द्रोणाचार्य जैसा कार्य कर रहे हैं, वह सब तुम्हारे आंखों के सामने हैं। एक ही समय प्राप्त हुए अनेक कार्यों मे से किसका पालन आवश्यक हैं, इसका निर्णय करने में तुम कुशल हों। मानद ! सबसे महान् प्रयोजन को तुम्हें शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिेये। मुझे तो सब कार्यो में सबसे महान् कार्य वही जान पड़ता है कि युद्धस्थल में अर्जुन की रक्षा की जाय। तात ! मैं दशाई नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण के लिये शोक नहीं करता। वे तो सम्पूर्ण जगत्के संरक्षक और स्वामी हैं। युद्धस्थल में तीनों लोक संग्रहित होकरआ जायें तो भी वे पुरुषसिंह श्रीकृष्ण उन सबको परास्त कर सकते हैं, यह तुमसे सच्ची बात कहता हूं। फिर दुर्योधन की इस अत्यन्त दुर्जल सेना को जीतना उनके लिये कौन बड़ी बात है?। परंतु वार्ष्णेय ! यह अर्जुन तो युद्धस्थल में बहुसंख्यक सैंनिको द्वारा पीड़ित होने पर समरागण में अपने प्राणों का परित्याग कर देगा। इसीलिये मैं शोक और दु:ख में डूबा जा रहा हैं। अत: तुम मेरे-जैसे मनुष्य से प्रेरित हो ऐसे संकट के समय अर्जुन-जैसे प्रिय सखा के पथ का अनुसरण करो, जैसा कि तुम्हारे-जैसे वीर पुरुष किया करते हैं। सात्यत ! वृष्णिवंशी प्रमुख वीरों में रणक्षेत्र के लिये दो ही व्यक्ति अतिरथी माने गये हैं-एक तो महाबाहु प्रद्युम्न और दूसरे सुविख्यात वीर तुम। नरव्याघ्र ! तुम अस्त्र विद्या के ज्ञान में भगवान् श्रीकृष्ण के समान, बलमें बलरामजी के तुल्य और वीरता में धनंजय के समान हो। इस जगत् में भीष्म और द्रोण के बाद तुझ पुरुषसिंह सात्यकि-को ही श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण युद्धाकाल में निपुण बताते हैं। जब अच्छे पुरुषों का समाज जुटता हैं, उस समय उसमें आये हुए सब लोग संसार में तुम्हारे गुणो को सदा-सर्वदा सबसे विलक्षण ही बतलाते हैं। उनका कहना है कि सात्यकि देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर तथा बड़े-बड़े नागों सहित बहुसंख्यक शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् से अकेले ही युद्ध कर सकते हैं। माधव ! लोग कहते हैं कि संसार में सात्यकि के लिये कोई कार्य असाध्य नहीं हैं। महाबली वीर ! सब लोगों की तथा मेरी और अर्जुन की-दोनों भाईयों की तुम्हारे विषय में बड़ी उतम भावना है। अत: मैं तुमसे जो कुछ कहता हैं, उसका पालन करो। महाबाहो ! तुम हमारी पूर्वोक्त धारणा को बदल न देना। समरागण् में प्यारे प्राणों का मोह छोड़कर निर्भय के समान विचरो। शैनेय ! दशाई कुल केवीर पुरुष रणक्षेत्र में अपने प्राण बचाने की चेष्टा नहीं करते हैं ।युद्ध से मुंह मोड़ना; युद्धस्थल में डटे न रहना और संग्राम भूमि में पीठ दिखाकर भागना यह कायरों और अक्षम पुरुषों का मार्ग हैं। दशाई कुल के वीर पुरुष इससे दूर रहते हैं।।98।। तात ! क्षिनिप्रवर ! धर्मात्मा अर्जुन तुम्हारा गुरु है तथा भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे और बुद्धिमान् अर्जुन के भी गुरु हैं। इन दोनों कारणों को जानकर मैं तुमसे इस कार्य के लिये कह रहा हूं। तुम मेरी बात की अवहेलना न करो। क्योंकि मैं तुम्हारे गुरु का भी गुरु है। तुम्हारा वहां जाना भगवान् श्रीकृष्ण को, मुझको तथा अर्जुन को भी प्रिय है। यह मैंने तुमसे सच्ची बात कही हे। अत: जहां अर्जुन हैं, वहां जाओ।सत्यपरा्क्रमी वत्स ! तुम मेरी इस बात को जानकर दुर्बुद्धि दुर्योधन कीइस सेना में प्रवेश करों। सात्वत ! इसमें प्रवेश करके यथायोग्य सब महारथियों से मिलकर युद्ध में अपने अनुरुप पराक्रम दिखायों।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्वणि में युधिष्ठिरवाक्ये विषयक एक सौ दसवां अध्याय पुरा हुआ।
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