महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 144 श्लोक 19-29

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चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद

उसी वरदान के प्रभाव से सोमदत्त ने प्रचुर दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा को पुत्र रूप में प्राप्त किया और उसने समरांगण में शिनिवंशज सात्यकि को गिरा दिया। इतना ही नहीं, उसने सारी सेनाओं के देखते-देखते सात्यकि को लात भी मारी। राजन ! आप मुझसे जो पूछ रहे थे, उसके उत्तर में यह प्रसंग सुनाया है। सात्यकि को रणभूमि में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मनुष्य भी नहीं जीत सकते। वृष्णिवंशी योद्धा अपने निशाने को सफलतापूर्वक वेध लेते हैं। वे संग्रामभूमि में अनेक प्रकार से विचित्र युद्ध करने वाले होते हैं। देवताओं, दानवों तथा गन्धर्वों पर भी वे विजयी होते हैं। फिर भी इसके लिये उनके मन में गर्व या विस्मय नहीं होता। वे अपने ही बल से विजय पाने का उद्योग करते हैं। ये वृष्णिवंशी कभी पराधीन नहीं होते हैं। शक्तिशाली भरतश्रेष्ठ ! भूत, वर्तमान और भविष्य कोई भी जगत बल में वृष्णिवंशीयों के समान नहीं दिखायी देता। ये अपने कुटुम्बीजनों की अवहेलना नहीं करते हैं। सदा बड़े-बूढ़ों की आज्ञा में तत्पर रहते हैं। देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग और राक्षस भी युद्ध में वृष्णि वीरों पर विजय नहीं पा सकते; फिर मनुष्य किस गिनती में हैं ? ये ब्राह्मण, गुरु तथा कुटुम्बीजनों के धन लेने के लिये कभी हिंसा नहीं करते हैं। इन ब्राह्मण गुरु आदि में जो कोई भी किसी आपत्ति में पड़े हों, उनकी ये वृष्णिवंशी रक्षा करते हैं। ये सब के सब धनवान, अभिमानशून्य, ब्राह्मण भक्त और सत्यवादी होते हैं। ये सामर्थ्‍यशाली पुरुषों की अवहेलना नहीं करते और दीन-दुखियों का उद्धार करते हैं। सदा देवभक्त, जितेन्द्रिय, दूसरों के संरक्षक तथा आत्मप्रशंसा से दूर रहने वाले हैं ।इसी से वृष्णि वीरों का यह समूह किसी के द्वारा प्रतिहत नहीं होता है। नरेश्वर ! कोई मेरुपर्वत को सिर पर उठा ले अथवा समुद्र को हाथों से तैर जाये; परंतु वृष्णि वीरों के समूह का अन्त नहीं पा सकता। प्रभो ! जहां आपको संदेह था, वह सब मैंने अच्छी तरह बता दिया है। कुरुराज नरश्रेष्ठ ! इस युद्ध को चालू करने में आपका महान अन्याय ही कारण है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में सात्यकि की प्रशंसा विषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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