महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 197 श्लोक 35-44

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सप्‍तनवत्‍यधिकशततम (197) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: सप्‍तनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद

पार्थ ! द्रोणका मस्‍तक प्रलयकाल की अग्नि के समान अत्‍यंत भयंकर तथा लौकिक अग्नि, सूर्य एवं विष के तुल्‍य संताप देने वाला था, अत: मैनें उसका छेदन किया है । इसके लिये तुम मेरी प्रशंसा क्‍यों नहीं करते ? जिसने युद्ध के मैदान में दूसरे किसी के नहीं, मेरे ही बन्‍धु-बान्‍धवों का वध किया था, उसका मस्‍तक काट लेने पर भी मेरा क्रोध और संताप शांत नहीं हुआ है। जैसे तुमने जयद्रथ केमस्‍तक को दूर फेंका था, उसी प्रकार मैनें द्रोणाचार्य के मस्‍तक को जो निषादों के स्‍थान में नहीं फेंक दिया, वह भूल मेरे मर्मस्‍थानों का छेदन कर रही है। अर्जुन ! सुनने मं आया है कि शत्रुओं का वध न करना भी अधर्म ही है । क्षत्रिय के लिये तो यहधर्म ही हैकि वह युद्ध में शत्रु को मार डाले या फिर स्‍वयं उसके हाथ से मारा जाय। पाण्‍डुनन्‍दन ! द्रोणाचार्य मेरे शत्रु थे, अत: मैनें युद्ध में धर्म के अनुसार ही उनका वध किया है । ठीक उसी तरह, जैसे तुमने अपने पिता के प्रिय मित्र शूरवीर भगदत्‍त का वध किया था। तुम युद्ध में पिता मह को मारकर भी अपने लिये तो धर्म मानते हो, किंतु मेरे द्वारा एक पापी शत्रु के मारे जाने पर भी इस कार्य को धर्म नहीं समझते, इसका क्‍या कारण है ? पार्थ ! जैसे हाथी सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेने पर लोगों को अपने उपर चढ़ाने के लिये अपने ही शरीर की सीढ़ी बनाकर बैठ जाता है, उसी प्रकार मैं भी तुम्‍हारें साथ सम्‍बन्‍ध होने के कारण नतमस्‍तक होता हूं, अत: तुम्‍हे मेरे प्रति मेरे प्रति ऐसी बातें नही कहनी चाहिए। अर्जुन ! मैं अपनी बहिन द्रोपदी और उसके पुत्रों के नाते ही तुम्‍हारी इन सारी उलटी या कड़वी बातों को सहे लेता हूं, दूसरे किसी कारण से नहीं। द्रोणाचार्य के साथ मेरा वंश-पराम्‍परागत वैर चला आ रहा है, जो बहुत प्रसिद्ध है । उसे यह सारा संसार जानता है, क्‍या तुम पाण्‍डवों को इसका पता नहीं है ? अर्जुन ! तुम्‍हारे बड़े भाई पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर असत्‍यवादी नहीं हैं और न मैं ही अधर्मीं हूं । द्रोणाचार्य पापी और शिष्‍यद्रोही थे, इसलिये मारे गये । अत तुम युद्ध करों, विजय तुम्‍हारें हाथ में है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व में धृष्‍टधुम्न वाक्‍य विषयक एक सौ सत्‍तानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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