महाभारत वन पर्व अध्याय 237 श्लोक 1-18

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सप्‍तत्रिंशदधिकद्विशततम (237) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
शकुनि और कर्ण का दुर्योधनकी प्रशंसा करते हुए उसे वनमें पाण्‍डवों के पास चलने के लिये उभाड़ना


वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! धृतराष्‍ट्रके पूर्वोक्‍त वचन सुनकर उस समय कर्णसहित शकुनिने अवसर देखकर दुर्योधनसे इस प्रकार कहा- ‘भरतनन्‍दन ! तुमने अपने पराक्रमसे पाण्‍डववीरोंको देशनिकाला देकर वनवासी बना दिया है । अब तुम स्‍वर्गमें इन्‍द्रकी भॉंति अकेले ही इस पृथ्‍वीका राज्‍य भोगो । ‘राजन् ! पर्वत, वन, उद्यान एवं स्‍थावर-जन्‍मोंसहित यह सारी समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी आज तुम्‍हारे अधिकारमें है । ‘नरेश्‍वर ! पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्‍तर दिशाके सभी राजाओंको तुम्‍हारे लिेय करदाता बना दिया गया है । ‘राजन् ! जो दीप्तिमती श्री पहले पाण्‍डवोंकी सेवा करती थी, वही आज भाइयोंसहित तुम्‍हारे अधिकार में आ गयी है ।। ‘महाराज ! इन्‍द्रप्रस्‍थमें जानेपर युधिष्ठिरके यहां हम लोग जिस राजलक्ष्‍मीको प्रकाशित होते देखते थे, वही आज तुम्‍हारे यहां उद्भासित होती दिखाई देती है । ‘राजेन्‍द्र ! तुम्‍हारे शत्रु शीघ्र ही शोकसे दीन-दुर्बल हो गये हैं । महाबाहो ! तुमने राजा युधिष्ठिरसे इस लक्ष्‍मीको अपने बुद्धिबलसे छीन लिया है । अत: अब तुम्‍हारे यहां यह प्रकाशित होती-सी दिखायी दे रही है । ‘शत्रुवीरोंका संहार करने वाले महाराज ! इसी प्रकार सब राजा अपनेको किंकर बताते हुए आपकी आज्ञाके अधीन रहते हैं । ‘राजन् ! इस समय यह सारी समुद्रवसना पृथ्‍वी देवी पर्वत, वन, ग्राम, नगर तथा खानों के साथ तुम्‍हारे अधिकार में आ गयी है । यह नाना प्रकारके प्रदेशोसे युक्‍त तथा पर्वतोंसे सुशोभित है । ‘नाना प्रकारकी ध्‍वजा-पताकाओंसे चिहिृत इस भूतल पर कितने ही समृद्धिशाली राष्‍ट्र हैं । और वहां बहुत सी विशाल सेनाएं संगठित हैं । ‘राजन् ! तुम अपने पुरूषार्थ से द्विजोंद्वारा सम्‍मानित तथा राजाओंद्वारा पूजित होकर स्‍वर्ग एवं देताओंमें अंशुमाली सूर्य की भॉंति इस भूतलपर प्रकाशित हो रहे हो ।। ‘महाराज ! जिस प्रकार रूद्रोंसे यमराज, मरूद्गणों से इन्‍द्र तथा नक्षत्रोंसे उनके स्‍वामी चन्‍द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार कौरवोंसे घिरे हुए तुम शोभा पा रहे हो । ‘जिन्‍होंने तुम्‍हारी आज्ञाका आदर नहीं किया था और जो तुम्‍हारे शासनमें नहीं थे, उन पाण्‍डवोंकी दशा हम प्रत्‍यक्ष देख रहे हैं । वे राजलक्ष्‍मीसे वच्चित हो वन में निवास करते हैं । ‘महाराज ! सुननेमें आया है कि पाण्‍डवलोग द्वैतवनमें सरोवरके तटपर वनवासी ब्राह्मणोंके साथ रहते हैं । ‘महाराज ! तुम उत्‍क़ष्‍ट राजलक्ष्‍मीसे सुशोभित होकर वहां चलो और जैसे सुर्य अपने तेजेसे जगत् को संतप्‍त करते हैं, उसी प्रकार पाण्‍डुपुत्रोंको संताप दो । ‘इस समय तुम राजाके पदपर प्रतिष्ठित हो और पाण्‍डव राज्‍यसे भ्रष्‍ट हो गये हैं । तुम श्रीसम्‍पन्‍न हो और वे श्रीहीन है । तुम समृद्धिशाली हो और वे निर्धन हो गये हैं । नरेश्‍वर ! तुम इसी दशामें चल कर पाण्‍डवोंको देखों । ‘पाण्‍डव तुम्‍हें नहुषनन्‍दन ययातिकी भॉति महान् वंशमें उत्‍पन्‍न तथा परम मगंलमयी स्थितिमें प्रतिष्ठित देखें । ‘प्रजापालक नरेश ! पुरूषमें प्रकाशित होने वाली जिस लक्ष्‍मीको उसके सुहृद् और शत्रु दोनों देखते हैं, वही सबल होती है । ‘जैसे पर्वतकी चोटीपर खडा हुआ मनुष्‍य भुतलपर स्थित हुई सभी वस्‍तुओं नीची और छोटी देखता है, उसी प्रकार जो पुरूष स्‍वयं सुखमें रहकर शत्रुओंको संकटमें पडा हुआ देखता-है, उसके लिये इससे बढकर सुखकी बात और क्‍या होगी ! ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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