महाभारत वन पर्व अध्याय 277 श्लोक 19-35

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सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम (277) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्तत्यधिकद्वशततमोऽध्यायः श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद


मन्थरा की यह बात सुनकर सूक्ष्म कटिप्रदेश वाली देवी कैकेयी समस्त आभूषणों से विभूषित हो परम सुन्दर रूप बनाकर एकान्त में अपने पति के पास गयी। उसकी मुस्कराहट से उसके शुद्ध भाव की सूचना मिल रही थी। वह हँसती और प्रेम जताती हुई सी मधुर वाणी में बोली- ‘सच्ची प्रतिज्ञा करने वाले महाराज ! आपने पहले तो ‘तेरा मनोरथ सफल करूँगा’ ऐसा वर दे दिया था, उसे आज पूर्ण कीजिये और उस संकअ से मुक्त हो जाइये’। राजा ने कहा - प्रिये ! यह ता बड़े हर्ष की बात है। मैं अभी तुम्हें वर देता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, ले लो। आत मैं तुम्हारे कहने से किस कैद करने के अयोग्य को कैद कर दूँ अथवा किस कैद करने योग्य को मुक्त कर दूँ ? किसे धन दे दूँ अथवा किसका सर्वस्व हरण कर लूँ ? ब्राह्मण धन के अतिरिक्त यहाँ अथवा अन्यत्र जो कुद भी मेरे पास धन है, उस पर तुम्हारा अधिकार है। मैं इस समय इस भूमण्डल का राजराजेश्वर हूँ, चारों वर्णों की रक्षा करने वाला हूँ। कल्याणि ! तुम्हारा जो भी अभिलक्षित मनोरथ हो, उसे बताओ, देर न करो। राजा की बात को समझकर और उन्हें सब प्रकार से वचनबद्ध करके अपनी शक्ति को भी ठीक-ठीक जान लेने के बाद कैकेयी ने उनसे कहा- 1723 ‘महाराज ! आपने श्रीराम के लिये जो राज्याभिषेक का सामान तैयार कराया है, वह भरत को मिले और राम वन मे चले जायँ’। भरतश्रेष्ठ ! कैकेयी का यह अप्रिय एवं भयानक परिणाम वाला वचन सुनकर राजा दशरथ दुःख से आतुर हो अपने मुँह से कुद भी बोल न सके। श्रीरामचन्द्रजी शक्तिशाली होने के साथ ही बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने पिता के पूर्वोक्त वरदान की बात जानकर राजा के सम्य की रक्षा हो, इस उद्देश्य से स्वयं ही वन को प्रस्थान किया। राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। श्रीरामचन्द्रजी के वन जाते समय उत्तम शोभा से सम्पन्न उनके भाई धनुर्धर लक्ष्मण ने तथा उनकी पत्नी विदेह राजकुमारी जनकनन्दिनी सीता ने भी उनका अनुसरण किया। श्रीरामचन्द्रजी के वन में चले जाने पर (उनके वियोग में) राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया। श्रीरामचन्द्रजी वन में चले गये तथा राजा परलोकवासी हो गये, यह देखकर कैकेयी ने भरत को ननिहाल से बुलवाया और इस प्रकार कहा- ‘बेटा ! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गलोक को सिधार गये तथा श्रीराम और लख्मण वन में निवास करते हैं। अब यह विशाल राज्य सब प्रकार से सुखद और निष्कण्टक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो’। भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माता की बात सुनकर उससे बोले - ‘कुलकलंकिनी जननी ! तूने धन के लोभ मे पड़कर यह कितनी बड़ी क्रूरता का काम किया है ? पति की हत्या की और इस कुल का विनाश कर डाला। ‘मेरे मस्तक पर कलंक कर टीका लगाकर तू अपना मनोरथ पूर्ण कर ले।’ ऐसा कहकर भरत फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा और मन्त्रियों आदि के निकट अपनी सफाई दी तथा भाई श्रीराम को वन से लौटा लाने की लालसा से उन्हीं के पथ का अनुसरण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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