महाभारत वन पर्व अध्याय 277 श्लोक 36-53
सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम (277) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )
वे कौसत्या, सुमित्रा तथा कैकेयी को आगे भेजकर स्वयं अत्यन्त दुखी हो शत्रुघ्न के साथ (पैदल ही) वन को चले। श्रीरामचन्द्रजी को लौटा लाने की अभिलाषा से उन्होंने वसिष्ठ, वामदेव और दूसरे सहस्त्रों ब्राह्मणों तथा नगर एवं जनपद के लोगों को साथ लेकर यात्रा की। चित्रकूट पहुँचकर भरत ने लक्ष्मण सहित श्रीराम को धनुष हाथ में लिये तपस्वीजनों की वेष-भूषा धारण किये देखा।
उस समय श्रीरामचन्द्रजी ने कहा - तात भरत ! अयोध्या लौट जाओ। तुम्हें प्रजा की रक्षा करनी चाहिये और मैं पिता के सत्य की रक्षा कर रहा हूँ, ऐसा कहकर पिताजी की आज्ञा पालन करने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने (समझा-बुझाकर) उन्हें विदा किया। तब वे (लौटकर) बड़े भाई की चरणपादुकाओं को आगे रखकर नन्दिग्राम में ठहर गये और वहीं से राज्य की देख-भाल करने लगे। श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ नगर और जनपद के लोागों के बराबर आने-जाने की आशंका से शरभंग मुनि के आरम में प्रवेश किया। वहाँ शरभंग मुनि का सत्कार करके वे दण्डकारण्य में चले गये और वहाँ सुरम्य गोदावरी के तट का आश्रय लेकर रहने लगे। वहाँ रहते समय शूर्पणखा के (नाक, कान, और ओंठ काटने के) कारण श्रीरामचन्द्रजी का जनस्थाननिवासी खर नामक राक्षस के साथ महान् वैर हो गया । धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी ने तपसवी मुनियों की रक्षा के लिये महाबली खर और दूषण को मारकर वहाँ के चैदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला तथा उन बुद्धिमान रघुनाथजी ने पुनः उस वन को क्षेमकारक धर्मारण्य बना दिया। उन राक्षसों के मारे जाने पर शूर्पणखा, जिसकी नाक और ओंठ काअ लिये गये थे, पुनः लंका में अपने भाई रावण के घर गई। रावण के पास पहुँचकर वह राक्षसी दुःख से मूर्छित हो भाई के चरणों में गिर पड़ी। उसके मुख पर रक्त बहकर सूख गया था। बहिन का रूप इस प्रकार विकृत हुआ देखकर रावण क्रोध से मूर्छित हो उठा और दाँतों से दाँत पीसता हुआ रोषपूर्वक आसन से उठकर खड़ा हो गया।।47।। अपने मन्त्रियों को विदा करके उसने एकान्त में शूर्पणखा से पूछा- ‘भद्रे ! किसने मेरी परवा न करके - मेरी सर्वथा अवहेलना करके तुम्हारी ऐसी दुर्दशा की है ?
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‘कौन तीखे शूल के पास जाकर उसे अपने सारे अंगों में चुभोना चाहता है ,कौन मूर्ख अपने सिर पर आग रखकर बेखटके सुख की नींद सो रहा है ? ‘कौन अत्यन्त भयंकर सर्प को पैर से कुचल रहा है , तथा कौन केसरी सिंह की दाढ़ों में हाथ डालकर निश्चिन्त खड़ा है ?’। इस प्रकार बोलते हुए रावण के कान, नाक एवं आँख आदि छिद्रों से उसी प्रकार आग की चिंगारियाँ निकलने लगीं, जिस प्रकार रात को जलते हुए वृक्ष के छेदों से आग की लपटें निकलती हैं ? तब रावण की बहिन शूर्पणखा ने श्रीराम के उस पराक्रम और खर-दूषण सहित समस्त राक्षसों के संहार का (सारा) वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर रावण ने अपने कर्तव्य का निश्चय किया और अपनी बहिन को सान्त्वना देकर नगर आदि की रक्षा का प्रबन्ध करके वह आकाश मार्ग से उड़ चला।
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