महाभारत वन पर्व अध्याय 279 श्लोक 18-32

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एकोनाशीत्यधिकद्वशततम (279) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद

श्रीरामचन्द्रजी का हृदय शोकाग्नि से दग्ध हो रहा था। वे शीघ्रतापूर्वक आश्रम की ओर बढ़े। मार्ग में उन्हें पर्वताकार गृधराज जटायु दिखायी दिये? जो रावण के हाथ से घायल हुए पड़े थे। लक्ष्मण सहित श्रीराम ने उन्हें राक्षस समझकर अपने प्रबल धनुष को खींचा और उनपर धावा कर दिया। तब तेजस्वी जटायु ने साथ आये हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों से कहा- ‘आप दोनों का भला हो। मैं राजा दशरथ का मित्र जटायु हूँ’ । उनकी ये बातें सुनकर उन्होंने अपने सुन्दर धनुष उतारकर हाथ में ले लिये और परस्पर पूछने लगे कि ‘यह कौन है, जो हमारे पिता का नाम लेकर परिचय दे रहा है’। तदनन्तर उन्होंने पास आकर देखा- जटायु के दोनों पंख कटे हुए हैं। गृधराज ने बताया कि ‘सीता को छुड़ाने के लिये युद्ध करते समय मैं रावण के हाथ से अत्यन्त घायल कर दिया गया हूँ’। श्रीरामचन्द्रजी ने जटायु से पूछा - ‘रावण किस दिशा की ओर गया है ?’ गृध ने सिर हिलाकर संकेत से दक्षिण दिशा बतायी और अपने प्राण त्याग दिये। उनके संकेत के अनुसार दक्षिण दिशा समझ लेने के पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी ने पिता के मित्र होने के नाते जटायु को आदर देते हुए उनका विधिपूर्वक अन्त्येष्टि-संस्कार किया। तदनन्तर आरम पर पहुँचकर उन्होंने देखा, कुश की चटाई बाहर फेंकी हुई है, कुटी उजाड़ हो गयी है, घर सूना पड़ा है, कलश फूटे पड़े हैं और सारे आश्रम में सैंकड़ों गीदड़ भरे हुए हैं। सीता का अपहरण हो जाने से दोनों भाइयों को बड़ी वेदना हुई। वे दुःख और शोक में डूब गये। फिर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम और लक्ष्मण दण्डकारण्य से दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। उस विशाल वन में लक्ष्मण सहित श्रीराम ने देखा कि मृगों के झुंड सब ओर भाग रहे हैं। वन-जन्तुओं का भयंकर शब्द ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ सब ओर दावानल फैल रहा हो और उससे भयभीत हुए प्राणी आर्तनाद कर रहे हों। दो ही घड़ी में उन दोनों भाइयों ने देखा, सामने एक कबन्ध (धड़) प्रकट हुआ है, जो देखने में अत्यन्त भयंकर है। वह मेघ के समान काला और पर्वत के समान विशालकाय था। साखू की शाखा के समान उसके कंघे और बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं। उसकी चैड़ी छाती में दो बड़ी-बड़ी आँखें चमक रहीं थीं और लंबे से पेट में बहुत बड़ा मुख दिखायी दे रहा था। वह एक राक्षस था। उसने सहसा आकर लक्ष्मण का एक हाथ पकड़ लिया। भारत ! यह देख सुमित्रानन्दन लक्ष्मण ततकाल बहुत दुखी हो गये। जिस ओर उस राक्षस का मुख था, उसी ओर देखकर वे अत्यन्त विषादग्रस्त होकर बोले- ‘भैया ! देखिये, मेरी यह क्या अवस्था हो रही है ?। ‘विदेहकुमारी का अपहरण, मेरा इस प्रकार असमय में विपत्तिग्रस्त होना, आपका राज्य से निर्वासन तथा पिताजी की मुत्यु- (इस प्रकार संकट पर संकट आता जा रहा है)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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