महाभारत वन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-42

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एकपञ्चाशत्तम (51) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

‘इन्द्रप्रस्थ में कुन्तीकुमारों के पास जो समृद्धि भी तथा राजसूय-यज्ञ के समय जिसे मैंने अपनी आंखों देखा था, वह अन्य नरेशों के लिये अत्यन्त दुर्लभ थी। ‘उस समय सब भूमिपाल पाण्डवों के शस्त्रों के तेज से भयभीत थे। अंग, वंग, पुण्ड, उड्र, चोल, द्राविड़, आन्ध्र, सागरतटवर्ती द्वीप तथा समुद्र के समीप निवास करनेवाले जो राजा थे, वे सभी राजसूय-यज्ञ में उपस्थित थे। सिंहल, बर्बर, म्लेच्छ, लंकानिवासी, पश्चिम के राष्ट्र, सागर के निकटवर्ती सैकड़ों प्रदेश, दरद, समस्त किरात, यवन, शक, हार हुण, चीन, तुषार, सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड, स्त्रीराज, केकय, मालव, तथा काश्मीरदेश के नरेश भी राजसूय यज्ञ में बुलाये गये थे और मैंने उन सबको आपके यज्ञ में रसोई परोसते देखा था। सब और फैली हुई आपकी उन चंचल समृद्धि को जिन लोगों ने छल से छीन लिया है, उसके प्राण लेकर भी मैं इसे पुनः वापस लाऊंगा। ‘कुरूनन्दन ! भरतकुलतिलक ! बलराम, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, अक्रूर, गद, साम्ब, प्रद्युम्न, आहुक, वीर धृष्टघुम्न और शिशुपालपुत्र धृष्टकेतु के साथ आक्रमण करते युद्ध में दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन एवं शकुनि तथा और जो कोई योद्धा सामना करने आयेगा, उसे भी शीघ्र ही मारकर मैं आपकी सम्पत्ति लौटा आऊंगा। तदनन्तर आप भाइयोंसहित हस्तिनापुर में निवास करते हुए धृतराष्ट्र की राजलक्ष्मी को पाकर इस सारी पृथ्वी का शासन कीजिये’। तब राजा युधिष्ठिर ने उस वीर समुदाय में इन धृष्टघुम्न आदि शूरवीर के सुनते हुए श्रीकृष्ण ने कहा। युधिष्ठिर बोले- जनार्दन ! मैं आपकी सत्य वाणी शिरोधार्य करता हूं। महाबाहों ! केशव ! तेरहवें वर्ष के बाद आप मेरे सम्पूर्ण शत्रुओं को उनके बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट कीजियेगा। ऐसा करके आप मेरे सत्य (वनवास के लिये की गयी प्रतिज्ञा) की रक्षा कीजिये। मैंने राजाओं की मण्डली में वनवास की प्रतिज्ञा की है। धर्मराज की यह बात सुनकर धृष्टघुम्न आदि सभासदों ने समयोचित मधुर वचनों द्वारा अमर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण को शीघ्र ही शांत कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने क्लेशरहित हुई द्रौपदी से भगवान् श्रीकृष्ण के सुनते हुए कहा-‘देवि ! दुर्योधन तुम्हारे क्रोध से निश्चय ही प्राण त्याग देगा। ‘वरवर्णिनि ! हम सब सच्ची प्रतिज्ञा करते हैं, तुम शोक न करो। कृष्णे ! उस समय तुम्हें जूए में जीती हुई देखकर जिन लोगों ने हंसी उड़ायी हैं, उनके मांस भेडि़ये और गीध खायंगे और नोच-नोचकर ले जायंगे। ‘इसी प्रकार जिन्होंने तुम्हें सभाभवन में घसीटा है, उनके कटे हुए सिरों को घसीटते हुए गीध और गीदड़ उनके रक्त पीयेंगे। ‘पांचालराजकुमारि ! तुम देखोगी कि उन दृष्टों के शरीर इस पृथ्वी पर मासाहारी गीदड़-गीध आदि पशु-पक्षियों द्वारा बार-बारी घसीटे और खाये जा रहे हैं। ‘जिन लोगों ने तुम्हें सभा में क्लेश पहुंचाया और जिन्होंने चुपचाप रहकर उस अन्याय की उपेक्षा की है, उन सबके कटे हुए मस्तकों का रक्त वह पृथ्वी पीयेगी’। भरतकुलतिलक ! इस प्रकार उन वीरों ने अनेक प्रकार की बातें कही थीं। वे सब के सब तेजस्वी और शूरवीर हैं। उनके शुभ लक्षण अमिट हैं। धर्मराज ने तेरहवें वर्ष के बाद युद्ध करने के लिये उनका वरण किया है। वे महारथी वीर भगवान् श्रीकृष्ण को आगे रखकर आक्रमण करेंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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