महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 23-42
चतुःषष्टितम (64) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
पृथ्वीनाथ ! मैं दीन, दुर्बल, कांतिहीन और मलिन होकर आधे वस्त्र से अपने अंगों को ढक्कर अकेली अनाथ-सी विलाप कर रहीं हूं। विशाल नेत्रोंवाले शत्रुसूदन आर्य ! मेरी दशा अपने झुंड से बिछुड़ी हुई हरिणीकी-सी हो रही है। मैं यहां अकेली रो रहीं हूं। परन्तु आप मेरा मान नहीं रखते हैं। महाराज ! इस महान् वन में मैं सती दमयन्ती अकेली आपको पुकार रही हूं, आप मुझे उत्तर क्यों नहीं देते ? नरश्रेष्ठ ! आप उत्तम कुल और शीलस्वभाव से सम्पन्न हैं। आप अपने सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित होते हैं। आज इस पर्वत शिखर पर मैं आपकों नहीं देख पाती हूं।। निषधनरेश ! इस महाभयंकर वन में, जहां सिंह-व्याध्र रहते हैं, आप कहीं सोये हैं, बैठे हैं अथवा खडे़ हैं ? मेरे शोक को बढ़ानेवाले नरश्रेष्ठ ! आप यहीं हैं या कहीं अन्यत्र चल दिये, यह मैं किससे पूछूं ? आपके लिये शोक से दुर्बल होकर मैं अत्यन्त दुःख से आतुर हो रहीं हूं। ‘क्या तुम्ने इस वन में राजा नल से मिलकर उन्हें देखा है ?’ ऐसा प्रश्न अब मैं इस वन में प्रस्थान करनेवाले नल के विषय में किससे करूं ? ‘शत्रुओं के व्यूह का नाश करनेवाले जिन परम सुन्दर कमलनयन महात्मा राजा नल को तू खोज रही है, वे सही तो हैं, ऐसी मधुर वाणी आज मैं किसके मुख से सुनूंगी ? यह वन का राजा कांतिमान् सिंह मेरे सामने चला आ रहा है, इसके चार दाढ़े और विशाल ठोड़ी है। मैं निःशंक होकर इसके सामने जा रही हूं और कहती हूं, आप मृगों के राजा और इस वन के स्वामी हैं। ‘मैं विदर्भराजकुमारी दमयन्ती हूं। मुझे शत्रुघाती निषध नरेश नल की पत्नी समझिये। ‘मृगेन्द्र ! मैं इस वन में अकेली पति की खोज में भटक रही हूं तथा शोक से पीडि़त एवं दीन हो रही हूं। यदि आपने नल को यहां कहीं देखा हो तो उनका कुशल-समाचार बताकर मुझे आश्वासन दीजिये। ‘अथवा वनराज मृगश्रेष्ठ ! यदि आप नल के विषय में कुछ नहीं बताते हैं तो मुझे खा जायं और इस दुःख से छुटकारा दे दें। अहो ! इस घोर वन में मेरा विलाप सुनकर भी यह सिंह मुझे सान्त्वना नहीं देता। यह तो स्वादिष्ट जल से भरी हुई इस समुद्रगामिनी नदी की ओर जा रहा है। अच्छा , इस पवित्र पवित्र पर्वत से ही पूछती हूं। यह बहुत-से ऊंचे-ऊंचे शोभवाली बहुरंगे एवं मनोरम शिखरों द्वारा सुशोभित है।। अनेक प्रकार के धातुओं से व्याप्त और भांति भांति के शिला-खण्डों से विभूषित है। यह पर्वत इस महान् वन की ऊपर उठी हुई पताका के समान जान पड़ता है। यह सिंह, व्याघ्र, हाथी, सूअर, रीछ और मृगों से परिपूर्ण है। इसके चारों ओर अनेक प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं। पलाश, अशोक, बकुल, पुन्नाग, कनेर, धव तथा प्लक्ष आदि सुन्दर फूलों वाले वृक्षों से यह पर्वत सुशोभित हो रहा है। यह पर्वत अनेक सरिताओं, सुन्दर पक्षियों और शिखरां से परिपूर्ण है। तब मैं इसी गिरिराज से महाराज नल का समाचार पूछती हूं। भगवन् ! अचलप्रवर ! दिव्य दृष्टिपात ! विख्यात ! सबको शरण देनेवाले परम कल्याणमय महीघर ! आपको नमस्कार है।
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