महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 43-62
चतुःषष्टितम (64) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
‘मैं निकट आकर आपके चरणों में प्रणाम करती हूं। आप मेरा परिचय इस प्रकार जानें, मैं राजा की पुत्री, राजा की पुत्रवधू तथा राजा की पत्नी हूं। मेरी ‘दमयन्ती’ दमयन्ती नाम से प्रसिद्धि है। ‘विदर्भदेश के स्वामी महारथी भीम नामक राजा मेरे पिता हैं। वे पृथ्वी पालक तथा चारों वर्णों के रक्षक हैं। ‘उन्होंने (प्रचुर) दक्षिणावाले राजसूय तथा अश्वमेघ नामक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। वे भूमिपालों में श्रेष्ठ हैं। धर्मज्ञ तथा पवित्र हैं। ‘वे विदर्भदेश की जनता की इच्छी तरह पालन करनेवाले हैं। उन्होंने समस्त शत्रुआंे को जीत लिया है, वे बडे़ शक्तिशाली हैं। भगवन् ! मुझे उन्हीं की पुत्री जानिये। मैं आपकी सेवा में (एक जिज्ञासा लेकर) उपस्थित हूं। ‘निषधदेश के महाराज मेरे श्वशुर थे, वे प्रातः स्मरणी नरश्रेष्ठ वीरसेन के नाम से विख्यात थे। ‘उन्हीं महाराज वीरसेन के एक वीर पुत्र हैं जो बड़े ही सुन्दर और सत्यपराक्रमी हैं। वे वंशपरम्परा से प्राप्त अपने पिता के राज्य का पालन करते हैं। ‘उनका नाम नल है। शत्रुदमन, श्यामसुन्दर राजा नल पुण्यश्लोक कहे जाते हैं। वे बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, वक्ता, पुण्यात्मा, सोमपान करनेवाले और अग्निहोत्री हैं। ‘वे अच्छे यज्ञकर्ता, उत्तम दाता, शूरवीर योद्धा और श्रेष्ठ शासक हैं, आप मुझे उन्हीं की श्रेष्ठ पत्नी समझ लीजिये। मैं अबला नारी निकट यहां उन्हीं की कुशल पूछने के लिये आयी हूं। गिरीराज ! (मेरे स्वामी मुझे छोड़कर कहीं चले गये है)। मैं धन-सम्पति से वंचित, पतिदेव से रहित, अनाथ और संकटों की मारी हुई हूं। इस वन में अपने पति की ही खोज कर रही हूं। पवर्तश्रेष्ठ ! क्या आपेन इन सैकड़ों गगनचुम्बी शिखरों द्वारा इस भयानक वन में कहीं राजा नल को देखा है ? ‘मेरे महायशस्वी स्वमाी निषधराज नल गजराज की सी चाल से चलते हैं। वे बडे़ बुद्धिमान्, महाबाहु, अमर्षशील (दुःख को न सहन करनेवाले) पराक्रमी, धैर्यवान और वीर हैं। क्या आपने कहीं उन्हें देखा है ? गिरिश्रेष्ठ ! मैं आपकी पुत्री के समान हूं और (पति के वियोग से बहुत ही) दुःखी हूं। क्या आप व्याकुल होकर अकेली विलाप करती हुई मुझ अबला को आज अपनी वाणी द्वारा आश्वासन न देंगे ? वीर ! धर्मज्ञ ! सत्यप्रतिज्ञ और पराक्रमी महीपाल ! यदि आप इसी वन में हैं तो राजन् ! अपने आपको प्रकट करके मुझे दर्शन दीजिये। मैं कब निषधराज नल की मेघ-गजर्ना के समान स्निग्ध्, गम्भीर, अमृतोपम वह मधुर वाणी सुनूंगी। उन महामना राजा के मुख से ‘वैदर्भि !’ इस सम्बोधन युक्त शुभ, स्पष्ट, वेद अनुकूल, सुन्दर पद और अर्थ से युक्त तथा मेरे शोक का विनाश करनेवाली वाणी मुझे कब सुनायी देगी। धर्मवत्सल नरेश्वर ! मुझ भयभीत अबला को आश्वासन दीजिये। इस प्रकार उस श्रेष्ठ पर्वत से कहकर उस राजकुमारी दमयन्ती फिर वहां से उत्तर की ओर चल दी। लगातार तीन दिन और तीन रात चलने के पश्चात् उस श्रेष्ठ नारी ने तपस्वियों से युक्त एक वन देखा, जो अनुपम तथा दिव्य वन से सुशोभित था। तथा वरिष्ठ, भृगु और अत्रि के समान नियम-परायण, मिताहारी तथा (शम), दम, शौच, आदि से सम्पन्न तपस्वियों से वह शोभायमान हो रहा था।
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