महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 77-95
एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
उन्हें कुन्ती के पुत्रों से दारुण एवं तीव्र भय प्राप्त हुआ था। वे एक दूसरे की ओर देखते हुए नगर की ओर भागने लगे । जब इस प्रकार अति भयंकर भगदड़ मची हुई थी, उस समय युयुत्सु शोक से मूर्छित हो मन ही मन समयोचित कर्तव्य का विचार करने लगा-‘भयंकर पराक्रमी पाण्डवों ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन को युद्ध में परास्त कर दिया और उसके भाईयों को भी मार डाला । ‘भीष्म और द्रोणाचार्य जिनके अगुआ थे, वे समस्त कौरव मारे गये। अकस्मात् भाग्य-योग से अकेला मैं ही बच गया हूं । ‘सारे शिबिर के लोग सब ओर भाग गये। स्वामी के मारे जाने से हतोत्साह होकर सभी सेवक इधर-उधर पलायन कर रहे हैं ।‘उन सबकी ऐसी अवस्था हो गयी है, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। सभी दुःख से आतुर हैं और सब के नेत्र भय से व्याकुल हो उठे हैं। सभी लोग भयभीत मृगों के समान दसों दिशाओं की ओर देख रहे हैं। दुर्योधन के मन्त्रियों में से जो कोई बच गये हैं, वे राजमहिलाओं को साथ लेकर नगर की ओर जा रहे हैं । ‘मैं राजा युधिष्ठिर और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर उन मन्त्रियों के साथ ही नगर में प्रवेश करूं, यही मुझे समयोचित कर्तव्य जान पड़ता है’ । ऐसा सोच कर महाबाहु युयुत्सु ने उन दोनों के सामने अपना विचार प्रकट किया। उसकी बात सुन कर निरन्तर करुणा का अनुभव करने वाले महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वैश्यकुमारी के पुत्र युयुत्सु को छाती से लगा कर विदा कर दिया । तत्पश्चात् उसने रथ पर बैठा कर तुरंत ही अपने घोड़े बढ़ाये और राजकुल की स्त्रियों को राजधानी में पहुंचा दिया । सूर्य के अस्त होते-होते नेत्रों से आंसू बहाते हुए उसने उन सबके साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया। उस समय उसका गला भर आया था । राजन् ! वहां उसने आपके पास से निकले हुए महाज्ञानी विदुरजी का दर्शन किया, जिनके नेत्रों में आंसू भरे हुए थे और मन शोक में डूबा हुआ था । सत्यपरायण विदुर ने प्रणाम करके सामने खड़े हुए युयुत्सु से कहा-‘बेटा ! बड़े सौभाग्य की बात है कि कौरवों के इस विकट संहार में भी तुम जीवित बच गये हो; परंतु राजा युधिष्ठिर के हस्तिनापुर में प्रवेश करने से पहले ही तुम यहां कैसे चले आये ? यह सारा कारण मुझे विस्तारपूर्वक बताओ’ । युयुत्सु ने कहा-चाचाजी ! जाति, भाई और पुत्र सहित शकुनि के मारे जाने पर जिसके शेष परिवार नष्ट हो गये थे, वह राजा दुर्योधन अपने घोड़े को युद्धभूमि में ही छोड़ कर भय के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग गया । राजा के छावनी से दूर भाग जाने पर सब लोग भय से व्याकुल हो राजधानी की ओर भाग चले । तब राजा तथा उनके भाइयों की पत्नियों को सब ओर से सवारियों पर बिठा कर अन्तःपुर के अध्यक्ष भी भय के मारे भाग खड़े हुए । तदनन्तर मैं भगवान श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर भागे हुए लोगो की रक्षा के लिये हस्तिनापुर में चला आया हूं ।
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