महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 18-36

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद

‘पाण्डवो ! स्थिर होकर खड़े रहो। आज मैं अस्त्र-शस्त्र एवं रथ से हीन होकर भी घोड़ों और रथों पर चढ़ कर आये हुए तुम सब लोगों को उसी तरह अपने तेज से नष्ट कर दूंगा, जैसे रात्रि के अन्त में सूर्यदेव सम्पूर्ण नक्षत्रों को अपने तेज से अदृश्य कर देते हैं । ‘भरतश्रेष्ठ ! आज मैं भाइयों सहित तुम्हारा वध करके उन यशस्वी क्षत्रियों के ऋण से उऋण हो जाऊंगा। बाह्रीक, द्रोण, भीष्म, महामना कर्ण, शूरवीर जयद्रथ, भगदत्त, मद्रराज शल्य, भूरिश्रवा, सुबलकुमार शकुनि तथा पुत्रों, मित्रों, सुहृदों एवं बन्धु बान्धवों के ऋण से भी उऋण हो जाऊंगा।’ राजा दुर्योधन इतना कहकर चुप हो गया । युधिष्ठिर बोले-सुयोधन ! सौभाग्य की बात है कि तुम भी क्षत्रिय धर्म को जानते हो। महाबाहो ! यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अभी तुम्हारा विचार युद्ध करने का ही है। कुरुनन्दन ! तुम शूरवीर हो और युद्ध करना जानते हो- यह हर्ष और सौभाग्य की बात है । तुम रणभूमि में अकेले ही एक एक के साथ भिड़ कर हम सब लोगों से युद्ध करना चाहते हो तो ऐसा ही सही। जो हथियार तुम्हें पसंद हो, उसी को लेकर हम लोगों में से एक एक के साथ युद्ध करो। हम सब लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे । वीर ! मैं स्वयं ही पुनः तुम्हें यह अभीष्ट वर देता हूं कि ‘हम में से एक का भी वध कर देने पर सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा अथवा यदि तुम्हीं मारे गये तो स्वर्ग लोक प्राप्त करोगे।’ दुर्योधन बोला-राजन् ! यदि ऐसी बात है तो इस महासमर में मेरे साथ लड़ने के लिये आज किसी भी एक शूरवीर को दे दो और तुम्हारी सम्मति के अनुसार हथियारों में मैंने एक मात्र इस गदा का ही वरण किया है । मैं हर्ष के साथ कह रहा हूं कि ‘ तुम में से कोई भी एक वीर जो मुझ अकेले को जीत सकने का अभिमान रखता हो, वह रणभूमि में पैदल ही गदा द्वारा मेरे साथ युद्ध करे’ । रथ के विचित्र युद्ध तो पग पग पर हुए हैं। आज यह एक अत्यन्त अदभुत गदा युद्ध भी हो जाय । मनुष्य बारी-बारी से एक-एक अस्त्र का प्रयोग करना चाहते हैं; परंतु आज तुम्हारी अनुमति से युद्ध भी क्रमशः एक एक योद्धा के साथ ही हो। महाबाहो ! मैं गदा के द्वारा भाइयों सहित तुम को, पान्चालों और सृअयों को तथा जो तुम्हारे दूसरे सैनिक हैं, उनको भी जीत लूंगा। युधिष्ठिर ! मुझे इन्द्र से भी कभी घबराहट नहीं होती । युधिष्ठिर बोले-गान्धारीनन्दन ! सुयोधन ! उठो-उठो और मेरे साथ युद्ध करो। बलवान् तो तुम हो ही। युद्ध में गदा के द्वारा अकेले किसी एक वीर के साथ ही भिड़ कर अपने पुरुषत्व का परिचय दो। एकाग्रचित्त होकर युद्ध करो। यदि इन्द्र भी तुम्हारे आश्रयदाता हो जायं तो भी आज तुम्हारे प्राण नहीं बच सकते । संजय कहते हैं-राजन् ! युधिष्ठिर के इस कथन को जल में स्थित हुआ आपका पुत्र पुरुष सिंह दुर्योधन नहीं सह सका। वह बिल में बैठे हुए विशाल सर्प के समान लंबी सांस खींचने लगा। राजन् ! जैसे अच्छा घोड़ा कोड़े की मार नहीं सह सकता है, उसी प्रकार वचन रूपी चाबुक से बार बार पीडि़त किया जाता हुआ दुर्योधन युधिष्ठिर की उस बात को सहन न कर सका ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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