महाभारत शल्य पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-18
षष्ठ (6) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
दुर्योधन के पूछने पर अश्वत्थामा शल्य को सेनापति बनाने के लिये प्रस्ताव, दुर्योधन का शल्य से अनुरोध और शल्य द्वारा उसकी स्वीकृति।
संजय कहते हैं- महाराज ! तदनन्तर हिमालय के ऊपर की चैरस भूमि में डेरा डालकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले सभी महान योद्धा वहाँ एकत्र हुए। शल्य, चित्रसेन, महारथी शकुनि, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, सात्वतवंशी कृतवर्मा, सुषेण, अरिष्टसेन, पराक्रमी धृतसेन और जयत्सेन आदि राजाओं ने वहीं रात बितायी। रणभूमि में वीर कर्ण के मारे जाने पर विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों द्वारा डराये हुए आपके पुत्र हिमालय पर्वत के सिवा और कहीं शांति न पा सके। राजन् ! संग्रामभूमि में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले उन सब योद्धाओं ने वहाँ एक साथ होकर शल्य के समीप राजा दुर्योधन का विधिपूर्वक सम्मान करके उससे इस प्रकार कहा-। नरेश्वर ! तुम किसी को सेनापति बनाकर शत्रुओं के साथ युद्ध करो, जिससे सुरक्षित होकर हम लोग विपक्षियों पर विजय प्राप्त करें। राजन् ! तब आपका पुत्र दुर्योधन रथ पर बैठकर अश्वत्थामा के निकट गया। अश्वत्थामा महारथियों में श्रेष्ठ, युद्धविषयक सभी विभिन्न भावों का ज्ञाता और युद्ध में यमराज के समान भयंकर है। उसके अंग सुन्दर हैं, मस्तक केशों से आच्छादित है और कण्ड शंख के समान सुशोभित होता है। वह प्रिय वचन बोलने वाला है। उसके नेत्र विकसित कमल दल के समान सुन्दर और मुख व्याघ्र के समान भयंकर है। उसमें वेरूपर्वत की-सी गुरूता है। स्कन्ध, नेत्र, गति और स्वर में वह भगवान शंकर के वाहन वृष के समान है। उसकी भुजाएँ पुष्ठ, सुगठित एवं विशाल हैं। वृक्षःस्थल का उत्तमभाग भी सुविस्तृत है। वह बल और वेग में गरूड़ एवं वायु की बराबरी करने वाला है।
तेज में सूर्य और बुद्धि में शुक्राचार्य के समान है। कांति, रूप तथा मुख की शोभा-इन तीन गुणों में वह चन्द्रमा के तुल्य है। उसका शरीर सुवर्णमय प्रस्तर समूह के समान सुशोभित होता है। अंगो का जोड़ या संधिस्थान भी सुगठित है। ऊरू, कटिप्रदेश और पिण्डलियाँ ये सुन्दर और गोल हैं। उसके दोनों चरण मनोहर हैं। अंगुलियाँ और नख भी सुन्दर हैं, मानो विधाताने उत्तम गुणों का बारंबार स्मरण करके बडे़ यत्न से उसके अंगों का निर्माण किया हो। वह समस्त शुभलक्षणों से सम्पन्न, समस्त कार्यो में कुशल और वेदविद्या का समुद्र है। परंतु शत्रुओं के लिये बलपूर्वक उसके ऊपर विजय पाना असम्भव है। वह दसों अंगो से युक्त चारों चरणों वाले धनुर्वेद को ठीक-ठीक जानता है। छहों अंगों सहित चार वेदों और इतिहास-पुराण स्वरूप पंचलवेद का भी अच्छा ज्ञाता है। महातपस्वी अश्वत्थामा को उसके पिता अयोनिज द्रोणाचार्य ने बडे़ यत्न से कठोर व्रतोंद्वारा तीन नेत्रों वाले भगवान शंकर की अराधना करके अयोनिजा कृपी के गर्भ से उत्पन्न किया था। उसके कर्मों की कहीं तुलना नहीं है। इस भूतलपर वह अनुपम रूप-सौन्दर्य से युक्त है। सम्पूर्ण विद्याओं का पारंगत विद्वान् और गुणों का महासागर है। उस अनिन्दित अश्वत्थामा के निकट जाकर आपके पुत्र दुर्योधन ने इस प्रकार कहा-। ब्रह्मन ! तुम हमारे गुरूपुत्र हो और इस समय तुम्हीं हमारे सबसे बडे़ सहारे हो। अतः मैं तुम्हारी आज्ञा से सेनापति का निर्वाचन करना चाहता हूँ । बताओं, अब कौन मेरा सेनापति हो, जिसे आगे रहकर हम सब लोग एक साथ हो युद्ध में पाण्डवों पर विजय प्राप्त करें ?
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