महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 117 श्लोक 19-23

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सप्तचत्वारिंश(117) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद

उस पहले के कुते और वर्तमान काल के शरभ ने सोचा कि इन महर्षि के प्रभाव से-इनके वाणी द्वारा केवल कह देनेमात्र से मैंने परम दुर्लभ शरभ का शरीर पा लिया, जो समस्‍त प्राणियों के लिये भंयकर है।। इन मुनीश्‍वर की शरण लेकर जीवन धारण करने वाले दूसरे भी बहुत–से मृग और पक्षी हैं, जो हाथी तथा दूसरे भयानक जन्‍तुओं से भयभीत रहते हैं। सम्‍भव है, ये उन्‍हें भी कदाचित् शरभ का शरीर प्रदान कर दें, जहां संसार के सभी प्राणियों में श्रेष्‍ठ बल प्रतिष्ठित है।। ये चाहे तो कभी पक्षियों को भी गरुड़ का बल दे सकते हैं।
अत: दया के वशीभूत हो जब तक किसी दूसरे जीव पर संतुष्‍ट या प्रसन्‍न हो ये उसे ऐसा ही बल नहीं दे देते, तब तक ही इन ब्रहार्षि का मैं शीघ्र वध कर डालूगा। मुनि का वध हो जाने के पश्‍चात् मैं यहां बेखटके रह सकूंगा, इसमसंशय नहीं है।। ज्ञान नेत्रों से युक्‍त उन मुनीश्‍वर ने अपनी तप:शक्ति से शरभ के उस मनोभाव को जान लिया। जानकर उन महाज्ञानी मुनि ने उस कुते से कहा-‘ अरे ! तू पहले कुता था, फिर चीता बना, चीते से बाघ की योनि में आया, बाघ से मन्‍दोमत हाथी हुआ, हाथी से सिंह की योनि में आ गया, बलवान् सिंह रहकर फिर शरभ का शरीर पा लिया। ‘यद्यपि तू नीच कुल में पैदा हुआ था, तो भी मैने स्‍नेहवश तेरा परित्‍याग नहीं किया। पापी ! तेरे प्रति मेरे मन में कभी पापभाव नहीं हुआ था, तो भी इस प्रकार तू मेरी हत्‍या करना चाहता है; अत: तू फिर अपनी पूर्वयोनि में ही आकर कुता हो जा’।महर्षि के इस प्रकार शाप देते ही वह मुनि जनद्रोही दुष्‍टात्‍मा नीच और मूर्ख फिर कुते के रुप में परिणत हो गया। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपवर्णि श्‍वर्षिसंवादे सप्‍तदशाधिकशततमोअध्‍याय:

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में कुता तथा ॠषि का संवाद विषयक एक सौ सत्रहवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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