महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 34-51
त्रिपञ्चाशदधिकशततम (153) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
अब तुम लोग तीव्र तपस्या करो, जिससे समस्त पापों से छुटकारा पा जाओगे। तपस्या से सब कुछ मिल सकता है। तुम्हारा यह विलाप क्या करेगा ? भाग्य शरीर के साथ ही प्रकट होता है और उसका अनिष्ट फल भी सामने आता ही है, जिससे यह बालक तुम्हें अनन्त शोक देकर जा रहा है। धन, गाय, सोना, मणि, रत्न और पुत्र–इन सबका मूल कारण तप ही है। तपस्या के योग से ही इनकी उपलब्धि होती है। जीव अपने पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार दु:ख–सुख को लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। सभी प्राणियों में सुख और दु:ख का भोग कर्मानुसार ही प्राप्त होता है। पिता के कर्म से पुत्र का और पुत्र के कर्म से पिता का कोई संबंध नहीं है। अपने–अपने पाप–पुण्य के बंधन में बंधे हुए जीव कर्मानुसार विभिन्न मार्ग से जाते हैं। तुम लोग यत्नपूर्वक धर्म का आचरण करो और अधर्म में कभी मन न लगाओ । देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में यथासमय तत्पर रहो। शोक और दीनता छोडो़ तथा पुत्रस्नेह से मन को हटा लो । इस बालक को इसी सूने स्थान में छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ। प्राणी जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भी करनेवाला ही भोगता है। इसमें भाई–बंधुओं का क्या है? बधु–बांधव लोग यहां अपने प्रिय बधुओं का परित्याग करके ठहरते नहीं है। सारा स्नेह छोड़कर आंखों में आंसू भरे यहां से चल देते हैं। विद्वान् हो या मूर्ख, धनवान् हो या निर्धन, सभी अपने शुभ या अशुभ कर्मों के साथ काल के अधीन हो जाते है। अच्छा, यह तो बताओ, तुम शोक करके क्या कर लोगे ? क्या इसे जिला दोगे ? फिर इस मृतक के लिये क्यों शोक करते हो? काल ही सबका शासक और स्वामी है, जो धर्मत: सबके ऊपर समान दृष्टि रखता है। यह कराल काल युवा, बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु-सबमें प्रवेश करता है। इस संसार की ऐसी ही दशा है। इस पर गीदड़ ने कहा-अहो! क्या इस मंदबुद्धि गीध ने तुम्हारे स्नेह को शिथिल कर दिया? तुम तो पुत्रस्नेह से अभिभूत होकर उसके लिये बड़ा शोक कर रहे थे। गीध के अच्छी युक्तियों से युक्त न्यायसंगत और विश्वासोत्पादक प्रतीत होने वाले वचनों से प्रभावित हो ये सब लोग जो दुस्त्यज स्नेह का परित्याग करके चले जा रहे हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है! अहो! पुत्र के वियोग से पीड़ित हो मृतको के इस शून्य स्थान में आकर अत्यंत दु:ख से रोने-बिलखने वाले इन भूतलवासी मनुष्यों के हृदय में बछड़ों से रहित हुई गायों की भांति कितना शोक होता है? इसका अनुभव मुझे आज हुआ है; क्योंकि इनके स्नेह को निमित्त बनाकर मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे हैं। अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये, तब दैवयोग से उसकी सिद्धि होती है । दैव और पुरूषार्थ-दोनों काल से ही सम्पन्न होते हैं। खेद और शिथिलता को कभी अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिये। खेद होने पर कहां से सुख प्राप्त हो सकता है। प्रयत्न से ही अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होती है; अत: तुम लोग इस बालक की रक्षा का प्रयत्न छोड़कर निर्दयतापूर्वक कहां चले जा रहे हो?
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