महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 175 श्लोक 26-39

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पञ्चसप्‍तत्‍यधिकशततम (175) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद

ग्राम में रहने पर वहां के स्त्री–पुत्र आदि विषयों में जो आसक्ति होती है, यह जीव को बांधने वाली रस्सी के समान है। पुण्‍यात्मा पुरूष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरूष इसे काट पाते हैं। जो मनुष्‍य मन, वाणी और शरीररूपी साधनों द्वारा प्राणियों की हिंसा नहीं करता, उसकी भी जीवन और अर्थ का नाश करने वाले हिंसक प्राणी हिंसा नहीं करते हैं। सत्य के बिना कोई भी मनुष्‍य सामने आते हुए मृत्यु की सेना का कभी सामना नहीं कर सकता, इसलिये असत्‍य को त्याग देना चाहिये। क्यों कि अमृतत्व सत्य में ही स्थित है। अत: मनुष्‍य को सत्य व्रत का आचरण करना चाहिये। सत्‍ययोग में तत्पर रहना और शास्त्र की बातों को सत्य मानकर श्रद्धापूर्वक सदा मन और इन्द्रियों का संयम करना चाहिये। इस प्रकार सत्य के द्वारा ही मनुष्‍य मृत्यु पर विजय पा सकता है। अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्‍य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्‍त होता है। अत: अब मैं हिंसा से दूर रहकर सत्‍य की खोज करूंगा, काम और क्रोध को हृदय से निकालकर दुख और सुख में समान भाव रखूंगा तथा सबके लिये कल्याणकारी बनकर देवताओं के समान मृत्यु के भय से मुक्‍त हो जाउंगा। मैं निवृति परायण होकर शान्तिमय यज्ञ में तत्पर रहूंगा, मन और इन्द्रियों को वश में रखकर ब्रह्मायज्ञ (वेद–शास्त्रों के स्वाध्‍याय) में लग लाउंगा और मुनिवृति से रहूंगा। उत्‍तरायण के मार्ग से जाने के लिये मैं जप और स्वाध्‍याय वाग्यज्ञ, ध्‍यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरूशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञ का अनुष्‍ठान करूंगा। मेरे-जैसा विद्वान पुरूष नश्‍वर फल देने वाले हिंसायुक्‍त पशुयज्ञ और पिशाचों के समान अपने शरीर के ही रक्‍त–मांस द्वारा किये जाने वाले तामस यज्ञों का अनुष्‍ठान कैसे कर सकता है? जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भली–भांति एकाग्र रहते हैं तथा जो त्याग, तपस्या और सत्य से सम्पन्न होता है, वह निश्‍चय ही सब कुछ प्राप्‍त कर सकता है। संसार में विद्या (ज्ञान)– के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, आसक्ति एवं क्रोध के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। मैं संतानरहित होने पर भी परमात्मा में ही परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूं, परमात्मा में ही स्थित हूं। आगे भी आत्‍मा में ही लीन होउंगा। संतान मुझे पार नहीं उतारेगी। परमात्मा के साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्‍ठा, दण्‍ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति-इनके समान ब्रह्माण के लिये दूसरा कोई धन नहीं है। ब्राह्माण देव पिताजी, जब आप एक दिन मर ही जायंगे तो आपको इस धन से क्‍या काम है तथा स्त्री आदि से आप‍का कौन–सा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है? आप सोचिये तो सही, आपके पिता और पितामह कहां चले गये? भीष्‍मजी कहते हैं- नरेश्‍वर! पुत्र का यह वचन सुनकर पिता ने जैसे सत्य–धर्म का अनुष्‍ठान किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य–धर्म में तत्पर रहकर यथायोग्‍य बर्ताव करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पिता और पुत्र के संवाद का कथन विषयक एक सौ पचहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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