महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 99-112

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नवनवत्‍यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 99-112 का हिन्दी अनुवाद

राजाने कहा – विकृत ! जब विरूप तुम्‍हें तुम्‍हारा दिया हुआ ऋण लौटा रहा है, तब तुम उसे आज ग्रहण क्‍यो नहीं करते ? जैसे इसने तुम्‍हारी दी हुई वस्‍तु स्‍वीकार कर ली थी, उसी प्रकार तुम भी इसकी दी हुई वस्‍तु को ले लो । विलम्‍ब न करो। विकृत बोला –राजन् ! विरूप ने अभी आपसे कहा हैं कि मैं ऋण धारण करता हॅू; परंतु मैंने उस समय ‘दान’ कह करके वह वस्‍तु इसे दी थी; इसलिये इसके ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है । अब यह जहॉ जाना चाहे, जा सकता है राजाने कहा- विकृत ! यह तुम्‍हें तुम्‍हारी वस्‍तु दे रहा है और तुम लेतने नहीं हो । यह मुझे अनुचित जान पड़ता है; अत: मेरे मत में तुम दण्‍डनीय हो; इसमें कोई संशय नहीं है। विकृत बोला – राजर्षे ! मैंने इसे दान दिया था; फिर वह दान इससे वापस कैसे ले लॅू । भले, इसमें मेरा अपराध समझा जाय; परंतु मैं दिया हुआ दान वापस नहीं ले सकता । प्रभो ! मुझे दण्‍ड भोगने की आज्ञा प्रदान करें। विरूप ने कहा – विकृत ! यदि तुम मेरी दी हुई वस्‍तु स्‍वीकार नहीं करोगे तो ये धर्मपूर्ण शासन करनेवाले नरेश तुम्‍हें कैंद कर लेंगे। विकृत बोला – तुम्‍हारे मॉगने पर मैंने अपना धन दान के रूप में दिया था; फिर आज उसे वापस कैसे ले सकता हॅू ? तुम्‍हारे ऊपर मेरा कुछ भी पावना नहीं है । मैं तुम्‍हें जाने के लिये आज्ञा देता हॅू, तुम जाओ। इसी बीच में जापक ब्राह्राण बोल उठा – राजन्  ! आपने इन दोनों की बातें सुन ली । मैंने आपको देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार आप मेरा दान बिना विचारे ग्रहण करें। राजा ने मन –ही-मन कहा – इन दोनों का बड़ा भारी और गहन कार्य सामने आ गया है । इधर जापक ब्राह्राण का सुदृढ़ आग्रह ज्‍यों-का-त्‍यों बना हुआ है। इससे निपटारा कैसे होगा। यदि मैं आज ब्राह्राण की दी हुई वस्‍तु ग्रहण न करूँ तो किस प्रकार महान् पापसे निर्लिप्‍त रह सकूँगा। इसके बाद राजर्षि इक्ष्‍वाकु ने उन दोनों से कहा – ‘तुम दोनों अपने विवाद का निपटारा हो जाने पर ही यहॉ से जाना। इस समय मेरे पास आकर अपना कार्य पूर्ण हुए बिना न जाना । मुझे भय है कि राजधर्म मिथ्‍या अथवा कलंकित न हो जाय। राजाओं को अपने धर्म का पालन करना चाहिये, य‍ही शास्‍त्र का सिद्धान्‍त है । इधर मुझ अजितात्‍मा के भीतर गहन ब्राह्राणधर्म ने प्रवेश किया है। ब्राह्राण ने कहा –राजन् ! आपने जो वस्‍तु मॉगी थी और जिसे देने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी, उसे मैं आपकी धरोहर के रूप में अपने पास रखता हॅू; अत: शीध्र उसे ले लें । यदि नहींल लेंगे तो निस्‍संदेह मैं आपको शाप दे दॅूगा। राजा ने कहा – धिक्‍कार है राजधर्म को, जिसके कार्य का यहॉ यह परिणाम निकला । ब्राह्राण को और मुझको समान फल की प्राप्ति कैसे हो, इसी उदेश्‍य से मुझे यह दान ग्रहण करना है। ब्रह्रान् ! यह मेरा हाथ जो आज से पहले किसी के सामने नहीं फैलाया गया था, आज आपसे धरोहर लेने के लिये आपके सामने फैला है । आप मेरा जो कुछ भी धरोहर धारण करते हैं, उसे इस समय मुझे दे दीजिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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