महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 201 श्लोक 13-21

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एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद

मनु ने कहा – मनुष्‍य इन कामनाओं से मुक्‍त हो निष्‍काम-भाव से कर्मो का अनुष्‍ठान करके परब्रह्रा परमात्‍मा को प्राप्‍त करे, इसी उदेश्‍य से कर्मो का विधान किया है, वेद में स्‍वर्ग आदि की कामना से जो योगादि कर्मो का विधान किया गया है, वह उन्‍हीं मनुष्‍यों को अपने जाल में फॅसाता है, जिनका मन भोगों में आसक्‍त है । वास्‍तव में इन कामनाओं से दूर रहकर परमात्‍मा को ही प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न करें (भगवत्‍प्राप्ति के लिये ही कर्म करे, क्षुद्र भोगों के लिये नहीं)। जब मन नित्‍य कर्मो के अनुष्‍ठान से राग आदि दोषों को दूर करके दर्पण की भॉति स्‍वच्‍छ एवं दीप्तिमान् हो जाता है, तब वह द्युतिमान् (सदसद् – विवेक के प्रकाश से युक्‍त) और नित्‍य सुख का अभिलाषी (मुमुक्षु) होकर निर्वाण भाव से धर्म में प्रवृत्‍त होता है एवं कर्ममार्ग से अतीत तथा कामनाओं से रहित परब्रह्रा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है। ब्रह्राजी ने मन और कर्म – इन दोनों के सहित प्रजा की सृष्टि की है; अत: ये दोनों लोकसेवित सन्‍मार्गरूप है । कर्म दो प्रकार का देखा गया है – एक सनातन और दूसरा विनाशशील, (मोक्ष का हेतुभूत कर्म सनातन है और नश्‍वर भोगों की प्राप्ति करानेवाला नाशवान् है) मन के द्वारा किये जानेवाले फल की इच्‍छा का त्‍याग ही कर्मो को सनातन बनाने और उनके द्वारा परब्रह्रा की प्राप्ति कराने में कारण है, दूसरा कुछ नहीं। जब रात बीत जाती है और अन्‍धकार का आवरण हट जाता है, उस समय जैसे चलने में प्रवृत्‍त करनेवाला नेत्र अपने तैजस् स्‍वरूप से युक्‍त हो रास्‍तें में पड़े हुए त्‍याग ने योग्‍य कॉटे आदि को देखते है, उसी प्रकार बुद्धि भी मो का पर्दा हट जाने पर ज्ञान के प्रकाश से युक्‍त हो त्‍यागने योग्‍य अशुभ कर्म को देखती है। मनुष्‍य जब जान लेते हैं कि रास्‍ते में सर्प है, कुशों के कॉटे हैं और कुऍ हैं, तब उनसे बचकर निकलते हैं। जो नही जानते हैं, ऐसे कितने ही पुरूष उन्‍हीं पर गिर पड़ते हैं । अत: ज्ञान का जो विशिष्‍ट फल है, उसे तुम प्रत्‍यक्ष देख लो। विधिपूर्वक सम्‍पूर्ण मन्‍त्रों का उच्‍चारण,वेदोक्‍त विधान के अनुसार यज्ञों का अनुष्‍ठान, यथायोग्‍य दक्षिणा, अन्‍न का दान और मन की एकाग्रता – इन पॉच अंगो से सम्‍पन्‍न होने पर ही यज्ञ-कर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्‍त होता हैं, ऐसा विद्वान पुरूष कहते हैं। वेंदों का कहना है कि कम त्रिगुणात्‍मक होते हैं अर्थात् सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार के होते है; इसीलिये मन्‍त्र भी सात्विक आदि भेद से तीन प्रकार के ही होते है; क्‍योकि मन्‍त्रोच्‍चारणपूर्वक ही कर्म का अनुष्‍ठान किया जाता है। इसी तरह उन कर्मो की विधि, विधेय (उनके लिये किया जानेवाला कार्य), मन के द्वारा अभीष्‍ट फल की सिद्धि और उसका भोक्‍ता देहाभिमानी जीव – ये सभी तीन-तीन प्रकार के होते है। शब्‍द, रूप, पवित्र रस, सुखद स्‍पर्श और सुन्‍दर गन्‍ध–ये ही कर्मो के फल है; किंतु इस शरीर में स्थित हुआ मनुष्‍य इन फलों को प्राप्‍त करने में समर्थ नहीं है । कर्मो के फल की प्राप्ति जो उनका फल भोगने के लिये प्राप्‍त शरीर में होती है, वह दैवाधीन है। जीव शरीर से जो-जो अशुभ या शुभ कर्म करता है, शरीर से युक्‍त हुआ ही उसके फलों को भोगता है; क्‍योंकि शरीर ही सुख और दु:ख भोगने का स्‍थान है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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