महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 5

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नवाधिकद्विशततम (209) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकद्विशततम अध्याय: 209 भाग 5 का हिन्दी अनुवाद

जो आपके अनन्‍य भक्‍त, द्वन्‍द्वों से रहित तथा निष्‍काम कर्म करनेवाले हैं, जिन्‍होंने ज्ञानमयी अग्नि से अपने समस्‍त कर्मो को दग्‍ध कर दिया हैं, वे आपके प्रति दृढ़ निष्‍ठा रखनेवाले पुरूष आपमें ही प्रवेश करते हैं। आप शरीर में रहते हुए भी उसमे रहित हैं तथा सम्‍पूर्ण देहधारियों में समभाव से स्थित हैं । जो पुण्‍य और पाप से मुक्‍त हैं, वे भक्‍तजन आप में ही प्रवेश करते हैं। अव्‍यक्‍त प्रकृति, बुद्धि (महतत्‍व ), अहंकार, मन,पंच महाभूत तथा सम्‍पूर्ण इन्द्रियाँ सभी आपमें हैं और उन सबमें आप हैं, किंतु वास्‍तव में न उनमें आप हैं, न आपमें वे हैं। एकत्‍व, अन्‍यत्‍व और नानात्‍व का रहस्‍य जो लोग अच्‍छी तरह जानते हैं, वे आप परमात्‍मा को प्राप्‍त होते हैं । आप सम्‍पूर्ण भूतों में सम हैं। आपका न कोई द्वेषपात्र है और न प्रिय । मैं अनन्‍य चित्‍त से आपकी भक्ति के द्वारा समत्‍व पाना चाहता हूँ। चार प्रकार का जो यह चराचर प्राणिसमुदाय हैं, वह सब आपसे व्‍याप्‍त है । जैसे सूत में मणियाँ पिरोये होते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आप में ही ओत प्रोत है। आप जगत् के स्‍त्रष्‍टा, भोक्‍ता और कूटस्‍थ हैं। तत्‍वरूप होकर भी उसमे सर्वथा विलक्षण हैं । आप कर्म के हेतु नहीं हैं । अविचल परमात्‍मा हैं । प्रत्‍येक शरीर में पृथक्-पृथक् जीवात्‍मारूप से आप ही विद्यमान हैं। वास्‍तव में प्राणियों से आपका संयोग नहीं है। आप भूत, तत्‍व और गुणों से परे हैं । अहंकार, बुद्धि और तीनों गुणों से आपका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। न आपका कोई धर्म है और न कोई अधर्म । न कोई आरम्‍भ है न जन्‍म । मैं जरा-मृत्‍यु से छुटकारा पाने के लिये सब प्रकार से आपकी शरण में आया हूँ। जगन्‍नाथ ! आप ईश्‍वर हैं, इसलिये परमात्‍मा कहलाते हैं । देव ! सुरेश्‍वर ! भक्‍तों के लिये जो हित की बात हो, उसका मेरे लिये चिन्‍तन कीजिये। विषयों और इन्द्रियों के साथ फिर मेरा कभी समागम न हो । मेरी घ्राणेन्द्रिय पृथ्‍वी तत्‍व में मिल जाय और रसना जल में, रूप (नेत्र) अग्नि में, स्‍पर्श (त्‍वचा) वायु में, श्रोत्रेन्द्रिय आकाश में और मन वैकारिक अहंकार में मिल जाय। अच्‍युत ! इन्द्रियाँ अपनी-अपनी योनियों में मिल जायॅ, पृथ्‍वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में, आकाश मन में, मन समस्‍त प्राणियों को मोहनेवाले अहंकार में, अंहकार बुद्धि (महत्‍तत्‍व) में और बुद्धि अव्‍यक्‍त प्रकृति में मिल जाय। जब प्रधान प्रकृति को प्राप्‍त हो जाय और गुणों की साम्‍यावस्‍थारूप महाप्रलय उपस्थित हो जाय, तब मेरा समस्‍त इन्द्रियों और उनके विषयों से वियोग हो जाय। तात ! मैं तुम्‍हारे लिये परम मोक्ष की आकांशा रखता हूँ । फिर आपके साथ मेरा एकीभाव हो जाय । इस संसार में फिर मेरा जन्‍म न हो। मृत्‍युकाल उपस्थित होनेपर मेरी बुद्धि आपमें ही लगी रहे। मेरे प्राण आप में ही लीन रहें । मेरा आपमें ही भक्तिभाव बना रहे और मैं सदा आपकी ही शरण में पड़ा रहूँ । इस प्रकार मैं निरन्‍तर आपका ही स्‍मरण करता हूँ। पूर्व शरीर में मैंने जो दुष्‍कर्म किये हो, उनके फलस्‍वरूप रोग-व्‍याधि मेरे शरीर में प्रवेश करें और नाना प्रकार के दु:ख मुझे आकर सतावें । इन सबका जो मेरे ऊपर ऋण है, वह उतर जाय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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