महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 83-99

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सप्‍तर्विंशत्‍यधिकद्विशततम (227) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तर्विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 83-99 का हिन्दी अनुवाद

पुरूष को लाभ-हानि, सुख-दु:ख, काम-क्रोध, अभ्‍युदयपराभव, वध, कैद और कैद से छुटकारा यह सब काल (प्रारब्‍ध) से ही प्राप्‍त होते हैं। न मैं कर्ता हॅू, न तुम कर्ता हो । जो वास्‍तव में सा कर्ता है, वह सर्वसमर्थ काल वृक्षपर लगे हुए फल के समान मुझे पका रहा है। पुरूष काल का सहयोगपाकरजिन कर्मो को करने से सुखी होता है, काल का सहयोग न मिलने से पुन: उन्‍हीं कर्मो को करके वह दु:ख का भागी होता है। इन्‍द्र ! जो काल के प्रभाव को जानता है, वह उससे आक्रान्‍त होकर भी शोक नहीं करता; क्‍योंकि विपत्ति दूर करने में शोक से कोई सहायता नहीं मिलती, इसलिये मैं शोक नहीं करता हॅू। जब शोक करनेवाले पुरूष का शोक संकट को दूर नही हटा पाता है, उलटे शोकग्रस्‍त मनुष्‍य की शक्ति क्षीण हो जाती है, तब शोक क्‍यों किया जाय ? यही सोचकर मैं शोक नहीं करता हॅू। बलि के ऐसा कहनेपर सहस्‍त्र नेत्रधारी पाकशासन शतक्रतु भगवान् इन्‍द्र ने अपने क्रोध को रोककर इस प्रकार कहा। ‘दैत्‍यराज ! मेरे हाथ को वज्र एवं वरूणपाश सहित ऊपर उठा देखकर मारने की इच्‍छा से आयी हुई मृत्‍यु का भी दिल दहल जाता है; फिर दूसरा कौन है जिसकी बुद्धि व्‍यथित न हो । तुम्‍हारी बुद्धि तत्‍व को जाननेवाली और स्थिर है; इसीलिये तनिक भी विचलित नहीं होती है।
‘सत्‍यपराक्रमी वीर ! तुम निश्‍चय ही धैर्य के कारण व्‍यथित नहीं होते हो । इस सम्‍पूर्ण जगत् को विनाश की ओर जाते देखकर कौन शरीरधारी पुरूष धन-वैभव, विषय-भोग अथवा अपने शरीर पर भी विश्‍वास कर सकता हैं ? ‘मैं भी इसी प्रकार सर्वव्‍यापी, अविनाशी, घोर एवं गुह्रा कालाग्नि से पडे़ हुए इस जगत् को क्षणभंगुर ही जानता हॅू। ‘जो काल की पकड़ में आ चुका है, ऐसे किसी भी पुरूष के लिये उससे छुटने का कोई उपाय नहीं है । सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म और महान् भूत भी कालाग्नि में पकाये जा रहे हैं, उनका भी उससे छुटकारा होनेवाला नहीं है । ‘काल पर किसी का भी वश नही चलता । वह सदा सावधान रहकर सम्‍पूर्ण भूतों को पकाता रहता है । वह कभी लौटनेवाला नहीं है । ऐसे काल के अधीन हुआ प्राणी उससे छुटकारा नहीं पाता है। ‘देहधारी जीव प्रमाद में पड़कर सोते है; किंतु काल सदा सावधान रहकर जागता रहता है । किसी के प्रयत्‍न से भी काल को पीछे हटाया जा सका हो, ऐसा पहले कभी किसी ने देखानहीं है।
‘काल पुरातन (अनादि) सनातन, धर्मस्‍वरूप और समस्‍त प्राणियों के प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है । काल का किसी के द्वारा भी परिहार नहीं हो सकता और न उसकाकोई उल्‍लघंन ही कर सकता है। जैसे ऋण देनेवाला पुरूष व्याज का हिसाब जोड़कर ऋण लेनेवालों को तंग करता है, उसी प्रकार वह काल दिन, रात, मास, क्षण, काष्‍ठा, लव और कला तक का हिसाब लगाकर प्राणियों को पीड़ा देता रहता है। ‘जैसे नदी का वेग सहसा बढ़कर किनारे के वृक्ष का हरण कर लेता है । उसी प्रकार ‘यह आज करूँगा और वह कल पूरा करूँगा ।‘ ऐसा कहनेवाले पुरूष का काल सहसा आकर हरण कर लेता है। ‘’अरे ! अभी-अभी तो मैने उसे देखा था । वह मर कैसे गया ? इस प्रकार काल से अपहृत होनेवालों के लिये अन्‍य मनुष्‍यों का प्रलाप सुना जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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