महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 236 श्लोक 19-25
षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वह सम्पूर्ण आकाश में जल ही जल सा देखता है तथा आत्मा को भी जलरूप अनुभव करता है (यह अनुभव जलतत्व की धारणा करते समय होता है) । फिर जल का लय हो जानेपर अग्नितत्व की धारणा करते समय उसे सर्वत्र अग्नि प्रकाशित दिखायी देता है । उसके भी लय हो जानेपर योगी को आकाश में सर्वत्र फैले हुए वायु का ही अनुभव होता है । उस समय वृक्ष और पर्वत आदि अपने समस्त शस्त्रों को पी जाने के कारण वायु की ‘पीतशस्त्र’ संज्ञा हो जाती है अर्थात् पृथ्वी, जल और तेजरूप समस्त पदार्थो को निगलकर वायु केवल आकाश में ही आन्दोलित होता रहता है और साधक स्वयं भी ऊनके धागे के समान अत्यन्त छोटा और हलका होकर अपने को निराधार आकाश में वायु के साथ ही स्थित मानता है । तदनन्तर तेज का संहार और वायु तत्व पर विजय प्राप्त होने के पश्चात् वायु का सूक्ष्म रूप स्वच्छ आकाश में लीन हो जाता है और केवल नीलाकाशमात्र शेष रह जाता है ।
उस अवस्था में ब्रह्राभावको प्राप्त होने की इच्छा रखनेवाले योगी का चित्त अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है, ऐसा बताया गया है । (उसे अपने स्थूल रूप का तनिक भी भान नहीं रहता । यही वायु का लय और आकाशतत्व विजय कहलाता है) । इन सब लक्षणों के प्रकट हो जाने पर योगी को जो-जो फल प्राप्त होते है, उन्हें मुझसे सुनो । पार्थिव ऐश्वर्य की सिद्धि हो जानेपर योगी में सृष्टि करने की शक्ति आ जाती है । वह प्रजापति के समान क्षोभरहित होकर अपने शरीर से प्रजा की सृष्टि कर सकता है । जिसको वायुतत्व सिद्ध हो जाता है, वह बिना किसी की सहायता के हाथ, पैर, अॅगूठे अथवा अंगुलिमात्र से दबाकर पृथ्वी को कम्पित कर सकता है –ऐसा सुनने में आया है । आकाश को सिद्ध करनेवाला पुरूष आकाश में आकाश के ही समान सर्वव्यापी हो जाता है । वह अपने शरीर को अन्तर्धान करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है । जिसका जलतत्व पर अधिकार होता है, वह इच्छा करते ही बडे़-बडे़ जलाशयों को पी जाता है । अग्नितत्व को सिद्ध कर लेनेपर वह अपने शरीर को इतना तेजस्वी बना लेता है कि कोई उसकी ओर ऑख उठाकर देख भी नहीं सकता और न उसके तेज को बुझा ही सकता है । अहंकार को जीत लेने पर पाँचों भूत योगी के वश में हो जाते हैं ।
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