महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 244 श्लोक 1-13

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चतुश्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (244) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुश्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

वानप्रस्‍थ और संन्‍यास आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन

भीष्‍मजी कहते हैं- बेटा युधिष्ठिर! मनीषी पुरूषों द्वारा जिसका विधान एवं आचरण किया गया है, उस गृहस्‍थ वृत्ति का मैंने तुमसे वर्णन किया । तदनन्‍तर व्‍यासजी ने अपने महात्‍मा पुत्र शुकदेव से जो कुछ कहा था, वह सब बताता हॅू, सुनो। वत्‍स ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । गृहस्‍थी‍ की इस उत्तम तृतीय वृत्ति की भी उपेक्षा करके सहधर्मिणी के संयोग से किये जाने वाले व्रत नियमों द्वारा जो खिन्‍न हो चुके हैं तथा वानप्रस्‍थ आश्रम को जिन्‍होंने अपना आश्रय बना लिया है, सम्‍पूर्ण लोक और आश्रम जिनके अपने ही स्‍वरूप हैं, जो विचारपूर्वक व्रत और नियमों में प्रवृत्त हैं तथा पवित्र स्‍थानों में निवास करते हैं, ऐसे वनवासी मुनियों का जो धर्म है, उसे बताता हॅू, सुनो। व्‍यास जी बोले- बेटा ! गृहस्‍थ पुरूष जब अपने सिर के बाल सफेद दिखायी दें, शरीर में झुर्रियां पड़ जाये और पुत्र को भी पुत्र प्राप्ति हो जाये तो अपनी आयु का तीसरा भाग व्‍यतीत करने के लिये वन में जाय और वानप्रस्‍थ आश्रम में रहे । वह वानप्रस्‍थ आश्रम में भी उन्‍हीं अग्नियों का सेवन करे, जिनकी गृहस्‍थाश्रम में उपासना करता था ।साथ ही वह प्रतिदिन देवाराधन भी करता रहे। वानप्रस्‍थी पुरूष नियम के साथ रहे, नियमानुकूल भोजन करे । दिन के छठे भाग अर्थात तीसरे पहर में एक बार अन्‍न ग्रहण करे और प्रमाद से बचा रहे । गृहस्‍थाश्रम की ही भॉति अग्निहोत्र, वैसी ही गो सेवा तथा उसी प्रकार यज्ञ के सम्‍पूर्ण अंगों का सम्‍पादन करना वानप्रस्‍थ का धर्म है। वनवासी मुनि बिना जोती हुई पृथ्‍वी से पैदा हुआ धान, जौ, नीवार तथा विघस (अतिथियों को देने से बचे हुए) अन्‍न से जीवन निर्वाह करे । वानप्रस्‍थ में भी पंचमहायज्ञों में हविष्‍य वितरण करे। वानप्रस्‍थ आश्रम में भी चार प्रकार की वृत्तियॉ मानी गयी हैं । कोई उतने ही अन्‍न का संग्रह करते हैं कि तुरंत बना खाकर बर्तन को धो मांजकर साफ कर लें अर्थात वे दूसरे दिन के लिये कुछ नहीं बचाते । कुछ दूसरे लोग वे हैं, जो एक महीने के लिये अनाज का संग्रह करते हैं। कोई वर्षभर के लिये और कोई बारह वर्षों के लिये अन्‍न का संग्रह करते हैं । उनका यह संग्रह अतिथि सेवा तथा यज्ञकर्म के लिये होता है। वे वर्षों के समय खुले आकाश के नीचे और सर्दी में पानी के भीतर खडे़ रहते हैं। जब गर्मी आती है, तब पंचाग्नि से शरीर को तपाते है और सदा स्‍वल्‍प भोजन करने वाले होते है। वानप्रस्‍थी महात्‍मा जमीन पर लोट-पोट करते, पंजों के बल खडे़ होते, एक स्‍थान पर आसन लगाकर बैठते तथा तीनों काल स्‍नान और संध्‍या करते हैं। कोई दॉतों से ही ओखली का काम लेते हैं, अर्थात् कच्‍चे अन्‍न को चबा-चबाकर खाते हैं । दूसरे लोग पत्‍थर कूटकर भोजन करते हैं और कोई-कोई शुक्‍लपक्ष या कृष्‍णपक्ष में एक बार जौ का औटाया हुआ मॉड़ पीकर रह जाते हैं अथवा समयानुसार जो कुछ मिल जाय वही खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। वानप्रस्‍थ धर्म का आश्रय लेकर कोई कन्‍दमूल से और कोई-कोई दृढ़ व्रत का पालन करते हुए फूलों से ही धर्मानुकूल जीविका चलाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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