महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 264 श्लोक 1-12
चतु:षष्टयधिकद्विशततम (264) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तुलाधार ने कहा – ब्रह्मन ! मैंने धर्म के जिस मार्ग का दर्शन कराया है, उसपर सज्जन पुरूष चलते हैं या दुर्जन ? इस बात को अच्छी तरह जांचकर प्रत्यक्ष कर लो। तब तुम्हें इसकी यथार्थता का ज्ञान होगा। देखो ! आकाश में ये जो बहुत-से श्येन एवं दूसरी जातियों के पक्षी चारों ओर विचरण कर रहे हैं, इनमें तुम्हारे सिरपर उत्पन्न हुए पक्षी भी हैं । ब्रह्मन् ! ये यत्र-तत्र घोंसलों में घुस रहे हैं। देखों, इन सबके हाथ-पैर सिकुड़कर शरीरों से सट गये हैं। इन सबको बुलाकर पूछो। ये पक्षी तुम्हारे द्वारा पालित और समादृत हुए हैं। अत: तुम्हारा पिता के समान सम्मान करते हैं। जाजले ! इसमें संदेह नहीं कि तुम इनके पिता ही हो; अत: इन पुत्रों को बुलाकर प्रश्न करो। भीष्म जी कहते हैं – राजन ! तदनन्तर जाजलि ने उन पक्षियों को बुलाया । उनका धर्मयुक्त वचन सुनकर वे पक्षी वहां आये और उनसे मनुष्य के समान स्पष्ट वाणी में बोलने लगे - ‘अहिंसा और दया आदि भावों से प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक और परलोक में भी उत्तम फल देने वाला है। ‘ब्रह्मन् ! यदि मन में हिंसा की भावना हो तो वह श्रद्धा का नाश कर देती है। फिर नष्ट हुई श्रद्धा कर्म करने वाले इस हिंसक मनुष्य का ही सर्वनाश कर डालती है। ‘जो हानि और लाभ में समान भाव रखने वाले, श्रद्धालु, संयमी और शुद्ध चित्तवाले पुरूष हैं तथा यज्ञ को कर्तव्य समझकर करते हैं, उनका यज्ञ कभी असफल नहीं होता। ‘ब्रह्मन् ! श्रद्धा सूर्य की पुत्री है, इसलिये उसे वैवस्वती, सावित्री और प्रसवित्री (विशुद्ध जन्मदायिनी) भी कहते हैं। वाणी और मन भी श्रद्धा की अपेक्षा बहिरंग है। ‘भरतनन्दन ! यदि वाणी के दोष से मन्त्र के उच्चारण में त्रुटि रह जाय और मन की चंचलता के कारण इष्ट देवता का ध्यान आदि कर्म सम्पन्न न हो सके तो भी यदि श्रद्धा हो तो वह वाणी और मन के दोष को दूर करके उस कर्म की रक्षा कर सकती है। परंतु यदि श्रद्धा न होने के कारण कर्म में त्रुटि रह जाय तो वाणी और मन (मन्त्रोच्चारण और ध्यान) उस कर्म की रक्षा नहीं कर सकते। इस विषय में प्राचीन वृत्तान्तों को जानने वाले लोग ब्रह्माजी की गायी हुई गाथा का वर्णन किया करते हैं, जो इस प्रकार है- पहले देवता लोग श्रद्धाहीन पवित्र और पवित्रतारहित श्रद्धालु के द्रव्य को यज्ञ कर्म के लिये एक-सा ही समझते थे। इसी प्रकार वे कृपण वेदवेत्ता और महादानी सूदखोर के अन्न में भी कोई अन्तर नहीं मानते थे। देवताओं ने खूब सोच-विचारकर दोनों प्रकार के अन्नों को समान निश्चित किया था। ‘किंतु एक बार यज्ञ में प्रजापति ने उनके इस बर्ताव को देखकर कहा-‘देवताओं ! तुमने यह अनुचित किया है। वास्तव में उदार का अन्न उसकी श्रद्धा के कारण पवित्र होता है और कंजूस का अश्रद्धा के कारण अपवित्र एवं नष्टप्राय समझा जाता है[१]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अत: श्रद्धाहीन पवित्र की अपेक्षा पवित्रताहीन श्रद्धालु का ही अन्न ग्रहण करने योग्य है। इसी प्रकार कृपण वेदवेत्ता और दानी सूदखोर में से दानी सूदखोर का ही अन्न श्रद्धापूत एवं ग्राह्य है। केवल सूदखोर और केवल कृपण का अन्न तो त्याज्य है ही।