महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 294 श्लोक 16-31
चतुर्नवत्यधिकद्विशततम (294) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तब शिव ने देवताओं के द्वारा बढाये हुए तेज से युक्त एक ही शक्तिशाली बाण के द्वारा तीन नगरों सहित आकाश में विचरने वाले उन समस्त असुरों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया । उन असुरों का स्वामी भयंकर आकार वाला तथा भीषण पराक्रमी था। देवताओं को वह सदा भयभीत किये रहता था; किंतु भगवान शूलपाणि ने उसे भी मार डाला । उस असुर के मारे जाने पर सब मनुष्य प्रकृतिस्थ हो गये तथा उन्हें पूर्ववत वेद और शास्त्रों का ज्ञान हो गया । तत्पश्चात सप्तर्षियों ने इन्द्र को स्वर्ग में देवताओं के राज्य पर अभिषिक्त किया और वे स्वयं मनुष्य के शासन-कार्य में लग गये । सप्तर्षियों के बाद विपृथु नामक राजा भूमण्डल का स्वामी हुआ तथा और भी बहुत-से क्षत्रिय भिन्न-भिन्न मण्डलों के राजा हुए । उस समय जो उच्च कुलों में उत्पन्न हुए थे, अवस्था और गुणों में बढे-चढे थे तथा जो उनसे भी पूर्ववर्ती पुरूष थे, उनके हृदय से भी आसुर भाव पूर्णरूप से नहीं निकला था । अत: उसी आनुषंगिक आसुरभाव से युक्त होकर कितने ही भयंकर पराक्रमी भूपाल असुरोचित कर्मों का ही सेवन करने लगे । जो मनुष्य अत्यन्त मूर्ख हैं, वे आज भी उन्हीं आसुरभावों में स्थित हैं, उन्हीं की स्थापना करते हैं और उन्हीं को सब प्रकार से अपनाते हैं । अत: राजन ! मैं शास्त्र के अनुसार खूब सोच-विचारकर कहता हूँ कि मनुष्य को उन्नत होने का प्रयत्न तो करना चाहिये, किंतु हिंसात्मक कर्म का त्याग कर देना चाहिये । बुद्धिमान पुरूष को चाहिये कि वह धर्म करने के लिये न्याय को त्यागकर पापमिश्रित मार्ग से धनका संग्रह न करें; क्योंकि उसे कल्याणकारी नहीं बताया जाता है । नरेश्वर ! तुम भी इसी प्रकार जितेन्द्रिय क्षत्रिय होकर बन्धु-बान्धवों से प्रेम रखते हुए प्रजा, भृत्य और पुत्रों को स्वधर्म के अनुसार पालन करो । इष्ट और अनिष्ट का संयोग, वैर और सोहार्द इन सबका अनुभव करते-करते जीव के कई सहस्त्र जन्म बीत जाते हैं । इसलिये तुम सद्गुणों में ही अनुराग रखो, दोषों में किसी प्रकार नहीं; क्योंकि गुणहीन और दुर्बुद्धि मनुष्य भी अपने गुणों के अभिमान से अत्यन्त संतुष्ट रहता है । महाराज ! यहाँ मनुष्यों में जैसे धर्म और अधर्म निवास करते हैं, उस प्रकार मनुष्येतर अन्य प्राणियों में नहीं । धर्मशील विद्वान मनुष्य सचेष्ट हो चाहे चेष्टारहित, उसे चाहिये कि सदैव जगत में सबके प्रति आत्मभाव रखकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करते हुए समभाव से व्यवहार करे । जब मनुष्य का मन कामना और कर्म-संस्कारों से रहित हो जाता है, उस समय उसे कल्याण की प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ चौरानबेबाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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