महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 299 श्लोक 15-26
नवनवत्यधिकद्विशततम (299) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
क्रोधी मनुष्यों से क्रोध न करने वाला मनुष्य श्रेष्ठ है। असहनशील से सहनशील पुरूष बड़ा है। मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य ही बढकर है तथा अज्ञानी से ज्ञानवान ही श्रेष्ठ है । जो दूसरे के द्वारा गाली दी जाने पर भी बदले में उसे गाली नहीं देता, उस क्षमाशील मनुष्य का दबा हुआ क्रोध ही उस गाली देने वाले को भस्म कर देता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है । जो दूसरों के द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जाने पर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसी के द्वारा चोट खाकर भी धैर्य के कारण बदले में न तो मारने वाले को मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मा से मिलने के लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं । पाप करने वाला अपराधी अवस्था में अपने से बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करने वाला पुरूष परम सिद्धि को प्राप्त होगा । यद्यपि मैं सब प्रकार से परिपूर्ण हूँ (मुझे कुछ जानना या पाना शेष नहीं है) तो भी मैं श्रेष्ठ पुरूषों की उपासना (सत्संग) करता रहता हॅूं। मुझ पर न तृष्णा का वश चलता है न रोष का। मैं कुछ पाने के लोभ से धर्म का उल्लंघन नहीं करता और न विषयों की प्राप्ति के लिये ही कहीं आता-जाता हूँ । कोई मुझे शाप दे दे तो भी मैं बदले में उसे शाप नहीं देता। इन्द्रियसंयम को ही मोक्ष का द्वार मानता हूँ। इस समय तुम लोगों को एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो। मनुष्य योनि से बढकर कोई उत्तम योनि नही है । जिस प्रकार चन्द्रमा बादलों के ओट से निकलने पर अपनी प्रभा से प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापों से मुक्त हुआ निर्मल अन्त:करणवाला धीर पुरूष धैर्यपूर्वक काल की प्रतीक्षा करता हुआ सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । जो अपने मन को वश में रखने वाला विद्वान पुरूष ऊँचे उठाने वाले खम्भे की भाँति उच्च कुल में उत्पन्न हुआ सब के लिये आदर के योग्य हो जाता है तथा जिसके प्रति सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मधुर वचन बोलते हैं, वह मनुष्य देवभाव को प्राप्त होता है । किसी से ईर्ष्या रखने वाले मनुष्य जिस तरह उसके दोषों का वर्णन करना चाहते हैं, उस प्रकार उसके कल्याणमय गुणों का बखान करना नहीं चाहते हैं । जिसकी वाणी और मन सुरक्षित होकर सदा सब प्रकार से परमात्मा में लगे रहते हैं, वह वेदाध्ययन, तप और त्याग - इन सबके फलको पा लेता है । अत: समझदार मनुष्य को चाहिये कि वह कटुवचन कहने या अपमान करने वाले अज्ञानियों को उनके उक्त दोष बताकर समझाने का प्रयत्न करे। उसके सामने दूसरे को बढावा न दे तथा उस पर आक्षेप करके उसके द्वारा अपनी हिंसा न कराये । विद्वान को चाहिये कि वह अपमान पाकर अमृत पाने की भाँति संतुष्ट हो; क्योंकि अपमानित पुरूष तो सुख से सोता है, किंतु अपमान करने वाले का नाश हो जाता है ।
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