महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 124-137
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जैसे दौड़ता हुआ अच्छा घोड़ा इतनी तीव्र गति से एक स्थान को छोड़कर पर पहुँच जाता है कि कुछ कहते नहीं बनता, उसी प्रकार यह प्रभावशाली लोक निरन्तर वेगपूर्वक एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जा रहा है, अत: उसके विषय में यह प्रश्न नहीं बन सकता है कि ‘कौन कहाँ से आता है और कौन कहाँ से नहीं आता है, यह किसका है ? किसका नहीं है ? किससे उत्पन्न हुआ है और किससे नहीं हुआ है ? प्राणियों का अपने अंगों के साथ भी यहाँ क्या सम्बन्ध है ?’ अर्थात् कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। जैसे सूर्य की किरणों का सम्पर्क पाकर सूर्यकान्त - मणि से आग प्रकट हो जाती है, परस्पर रगड़ खाने पर काठ से अग्नि का प्रादुर्भाव हो जाता है, इसी प्रकार पूर्वोक्त कलाओं के समुदाय से जीव जन्म ग्रहण करते हैं। जैसे आप स्वयं अपने द्वारा अपने ही में आत्मा का दर्शन करते हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा दूसरों में आत्मा का दर्शन क्यो नहीं करते हैं ? यदि आप अपने में और दूसरे में भी समभाव रखते हैं तो मुझसे बारंबार क्यों पूछते हैं कि ‘आप कौन हैं और किसकी हैं ? मिथिलानरेश ! ‘यह मुझे प्राप्त हो जाय, यह न हो ।‘ इत्यादि रूप से जो द्वन्द्वविषयक चिन्ता प्राप्त होती है, उससे यदि आप मुक्त हैं तो ‘आप कौन हैं ? किसकी हैं ? अथवा कहाँ से आयी हैं ?’ इन वचनों द्वारा प्रश्न करने से आपका क्या प्रयोजन है ? शत्रु-मित्र और और मध्यस्थ के विषय में, विजय, संधि और विग्रह के अवसरों पर जिस भूपालने यथोचित कार्य किये हैं, उसमें जीवन्मुक्त का क्या लक्षण है ? धर्म, अर्थ और काम को त्रिवर्ग कहते हैं । यह सात रूपों मे अभिव्यक्त होता है । जो कर्मों में इस त्रिवर्ग को नहीं जानता तथा जो सदा त्रिवर्ग से सम्बन्ध रखता है, ऐसे पुरूष में जीवन्मुक्त का क्या लक्षण है ? प्रिय अथवा अप्रिय में, दुर्बल अथवा बलवान् में जिसकी समदृष्टि नहीं है, उसमें मुक्त का क्या लक्षण है? नरेश्वर ! वास्तव में आप योगयुक्त नहीं हैं तथापि आपको जो जीवन्मुक्ति का अभिमान हो रहा है, वह आपके सुहृदों को दूर कर देना चाहिये अर्थात् यह नहीं मनना चाहिये कि आप जीवन्मुक्त हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपथ्यशील रोगी को दवा देना बंद कर दिया जाता है। शत्रुओं दमन करने वाले महाराज ! नाना प्रकार के जो-जो पदार्थ हैं, उन सबको आसक्ति के स्थान समझकर अपने द्वारा अपने ही मे अपने को देखे। इसके सिवा मुक्त का और क्या लक्षण हो जाता है ? राजन् ! अपने मोक्ष का आश्रय लेकर भी ये और दूसरे जो कुछ चार अंगों में प्रवृत्त आसक्ति के जो सूक्ष्म स्थान हैं, उनको भी अपना रखा है, उन्हें बताती हैूँ, आप मुझसे सुनें। जो इस सारी पृथ्वी का एकच्छत्र शासन करता है, वह एक ही सार्वभौम नरेश भी एकमात्र नगर में ही निवास करता है । उस नगर में भी उसके लिये एक ही महल होता है, जिसमें वह निवास करता है । उस महल में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है।
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