महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 110-123
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इस उन्नीसवें गुण से परे काल नामक दूसरा गुण और है । इसे बीसवाँ गुण समझिये । इसी से प्राणियों की उत्पत्ति और लय होते हैं। इन बीस गुणों का समुदाय एवं पाँच महाभूत तथा सद्वावयोग[१] और अस्द्रावयोग[२] — ये दो अन्य प्रकाशक गुण, ये सब मिलकर सत्ताईस हैं। ये जो बीस और सात गुण बताये गये हैं, इनके सिवा तीन गुण और हैं— विधि[३], शुक्र[४] और बल[५]। इस प्रकार गणना करने से बीस और दस तीस गुण होते हैं। ये सारे-के-सारे गुण जहाँ विद्यमान हैं, उसको शरीर कहा गया है। कोई-कोई विद्वान् अव्यक्त प्रकृति को इन तीस कलाओं का उपादान कारण मातने हैं । दूसरे स्थूलदर्शी विचारक व्यक्त अर्थात् परमाणुओं को कारण मानते हैं तथा कोई-कोई अव्यक्त और व्यक्त को अर्थात् प्रकृति और परमाणु—इन दोनों को उनका उपादान कारण समझते हैं। अव्यक्त हो, व्यक्त हो, दोनों हों अथवा चारों (ब्रह्मा, माया, जीव और अविद्या) कारण हों, अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् प्रकृति को ही सम्पूर्ण भूतों का उपादान कारण समझते हैं। राजेन्द्र ! यह जो अव्यक्त प्रकृति सबका उपादान कारण है, यही पूर्वोक्त तीस कलाओं रूप में व्यक्त भाव को प्राप्त हुई है । मैं, आप तथा जो अन्य शरीरधारी हैं, उन सबके शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति से ही हुई है। प्राणियों की वीर्य स्थापना से लेकर रजोवीर्य संयोग- सम्भूत कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनके सम्मिश्रण से ही ‘कलल’ नामक एक पदार्थ उत्पन्न होता है। कलल से बुद्बुद की उत्पत्ति होती है । बुद्बुद से मांसपेशी का प्रादुर्भाव माना गया है । पेशी से विभिन्न अंगों का निर्माण होता है और अंगों से रोमावलियाँ तथा नख प्रकट होते हैं। मिथिलानरेश ! गर्भ में नौ मास पूर्ण हो जाने पर जीव जन्म ग्रहण करता है । उस समय उसे नाम और रूप प्राप्त होता है तथा वह विशेष प्रकार के चिह्न से स्त्री अथवा पुरूष समझा जाता है। जिस समय बालक का जन्म होता उस समय उसका जो रूप देखने में आता है, उसके नख और अंगुलियाँ ताँबे के समान लाल-लाल होती हैं, फिर जब वह कुमारावस्था को प्राप्त होता है तो उस समय उसका पहले का वह रूप नहीं उपलब्ध होता है। इसी प्रकार कुमारावस्था से जवानी को और जवानी से बुढ़ापे को वह प्राप्त होता है । इस क्रम से उत्तरोत्तर अवस्था में पहुँचने पर पूर्व-पूर्व अवस्था का रूप नहीं देखने में आता है। सभी प्राणियों में विभिन्न प्रयोजन की सिद्धि के लिये जो पूर्वोक्त कलाएँ हैं, उनके स्वरूप में प्रतिक्षण भेद या परिवर्तन हो रहा है; परंतु वह इतना सूक्ष्म है कि जान नहीं पड़ता। राजन् ! प्रत्येक अवस्था में इन कलाओं का लय और उद्भव होता रहता है, किंतु दिखायी नहीं देता है; ठीक उसी तरह जैसे दीपक को लौ क्षण-क्षण में मिटती और उत्पन्न होती रहती है, पर दिखायी नहीं देती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'इस घटो अस्ति (यहाँ घड़ा है)' — इत्यादि रूपा से सत्तासूचक व्यवहार होता है, उसका नाम ‘सद् भावयोग’ है ।
- ↑ ‘इह घटो नास्ति (यहाँ घड़ा नहीं है)’—इत्यादि रूप से जो असत्तासूचक व्यवहार होता है, वही ‘असद् भावयोग’ है।
- ↑ यहाँ ‘विधी’ शब्द से वासना के बीजभूत धर्म और अधर्म समझने चाहिये।
- ↑ वासना का उद्वोधक संस्कार ही ‘शुक्र’ है।
- ↑ वासना के अनुसार विषय की प्राप्ति के अनुकूल जो यत्न है, वही ‘बल’ है।