महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 328 श्लोक 1-17

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अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम (328) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

शिष्यों के जाने के बाद व्यासजी के पास नारदजी का आगमन और व्यासजी को वेदपाठ के लिये प्रेरित करना तथा व्यासजी का शुददेव को अनध्याय का कारण बताते हुए ‘प्रवह’ आदि सात वायुओं का परिचय देना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! अपने गुरु व्यास के इस उनदेश को सुनकर उनके महातेजस्वी शिष्य मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और आपस में एक-दूसरे को हृदय से लगाने लगे। फिर व्यासजी बोले- ‘भगवन् ! आपने भविष्य में हमारे हित का विचार करके जो बातें बतायी हैं, वे हमारे मन में बैठ गयी हैं। हम अवश्य उनका पालन करेंगे’। इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके गुरु और शिष्य सभी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर प्रवचनकुशल शिष्यों ने गुरु से इस प्रकार निवेदन किया- ‘महामुने ! अब हम इस पर्वत से पृथ्वी पर जाना चाहते हैं। वेदों के अनेक विभाग करके उनका प्रचार करना ही हमारी यात्रा का उद्देश्य है। प्रभो ! यदि आपको यह रुचिकर जान पड़े तो हमें जाने की आज्ञा दें’। शिष्यों की यह बात सूनकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास य िधर्म और अर्थयुक्त हितकर वचन बोले। ‘शिष्यों ! यदि तुम्हें यही अच्छा लगता है तो तुम पृथ्वी पर या देवलोक में जहाँ चाहो जा सकते हो; परन्तु प्रमाद न करना; क्योंकि वेद में बहुत सी प्ररोचनात्मक श्रुतियाँ हैं, जो व्याज से (फलों का लोभ दिखाकर) धर्म का प्रतिवादन करती हैं। सत्यवादी गुरु की यह आज्ञा पाकर सभी शिष्यों ने उनके चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् पे व्यासजी की प्रदक्षिणा करके वहाँ से चले गये’। पृथ्वी पर उतरकर उन्होंने चातुर्होत्र कर्म (अग्निहोत्र से लेकर सोमयाग तक) का प्रचार किया और गृहसथाश्रम में प्रवेश करके ब्राह्मण, क्षत्रिय तािा वैष्यों के यज्ञ कराते हुए वे द्विजातियों से पूजित हो बडत्रे आनन्द से रहने लगे। यज्ञ कराने और वेदों की शिक्षा देने में ही वे तत्पर रहते थे। इन्हीं कर्मों के कारण वे श्रीसम्पन्न और लोक विख्यात हो गये थे। शिष्यों के पर्वत से नीचे उतर जाने पर व्यासजी के साथ उनके पुत्र शुकदेव के सिवा और कोई नहीं रह गया। वे बुद्धिमान व्यासजी एकान्त में ध्यानमग्न होकर चुपचाप बैठे थे। उसी समय महातपस्वी नारदजी उस आश्रम पर पधारकर व्यासजी से मिले और मधुर अक्षरों से युक्त मीठी वाणी में उनसे इस प्रकार बोले-हे ब्रह्मर्षिवासिष्ठ ! आज आपके इस आश्रम में वेद मन्त्रों की ध्वनि क्यों नहीं हो रही है ? आप अकेले ध्यानमग्न होकर चुपचाप क्यों बैइे हैं ? जान पड़ता है, आप किसी चिन्ता में मग्न हैं। ‘वेदध्वनि न होने के कारण इस पर्वत की पहले जैसी शोभा नहीं रही। रज और तम से आच्छन्न हो यह राहुग्रस्त चन्द्रता के समान जान पड़ता है। देवर्षियों से सेवित होने पर भी यह शैलशिखर ब्रह्मघोष के बिना भीलों के घर की तरह श्रीहीन प्रतीत होता है। ‘यहाँ के ऋषि, देवता और महाबली गन्धर्व भी ब्रह्मघोष से विमुक्त हो अब पहले की भाँति शोभा नहीं पा रहे हैं। नारदजी की बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास ने कहा- ‘वेदविद्या के विद्वान् महर्षे ! आपने जो कुछ कहा है, यह मेरे मन के अनुकूल ही है। आप ही ऐसी बात कह सकते हैं। आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वत्र की बातें जानने के लिए उत्कण्ठित रहने वाले हैं। ‘तीनों लोकों में जो बात होती हो या हो चुकी है


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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