महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 327 श्लोक 44-52
सप्तविंशत्यधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘तुम लोग बहुसंख्यक हो जाओ और दस वेद का विस्तार करो। जिसका मन वश में न हो, जसे ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन न करता हो तथा जो शिष्यभाव से पढ़ने न आया हो, उसे वेदाध्ययन नहीं कराना चाहिये। ‘ये सभी शिष्य के गुण हैं। किसी को शिष्य बनाने से पहले उसके इन गुणों को यथार्थ रूप से परख लेना चाहिये। जिसके सदाचार की परीक्षा न ली गयी हो, उसे किसी प्रकार विद्यादान नहीं देना चाहिये।‘जैसे आग में तपाने, काटने और कसौटी पर कसने से शुद्ध सोने की परख की जाती है, उसी प्रकार कुल और गुण आदि के क्षरा शिष्यों की परीक्षा करनी चाहिये| ‘तुम लोग अपने शिष्यों को किसी अनुचित या महान् भयदायक कार्य में न लगाना। तुम्हारे पढ़ाने पर भी जिसकी जैसी बुद्धि होगी और जो पढ़ने में जैसा परिश्रम करेगा, उसी के अनुसार उसकी विद्या सफल होगी। सब लोग दुर्गम संकट से पार हों और सभी अपना कल्याण देखें। ‘ब्राह्मण को आगे रखकर चारों वर्णों को उपदेश देना चाहिये। य िवेदाध्ययन महान् कार्य माना गया है। इसे अवश्य करना चाहिये। ‘स्वयम्भू ब्रह्मा ने यहाँ देवताओं की स्तुति के लिये वेदों की सृष्टि की है। जो माहवश वेद के पारंगत ब्राह्मण की निन्दा करता है, वह उसके अनिष्ट-चिन्तन के कारण निस्संदेह पराभाव को प्राप्त होता है।‘ जो धार्मिक विधि का उल्लंघन करके प्रश्न करता है और जो अधर्म पूर्वक उसका उत्तर देता है, उन दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है अथवा एक दूसरे के द्वेष कर पात्र बन जाता है। ‘ यह सब मैंने तुमलोगों से स्वाध्याय की विधि बतायी है। यह तुम्हारे हृदय में सदा स्मरण रहे; क्योंकि यह शिष्यों का उपकार कर सकती है’।
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