महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 335 श्लोक 1-12

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पन्चत्रिंशदधिकत्रिशततम (335) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पन्चत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्यायः: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

नारदजी का श्वेतद्वीप दर्शन, वहाँ के निवासियों के स्वरूप का वर्णन, राजा उपरिचर चरित्र तथा पान्चरात्र की उत्पत्ति का प्रसंग

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! पुरुषोत्तम भगवान् नारायण ने जब पुरुष प्रवर नारदजी से इस प्रकार कहा, तब वे लोकहित के आरयभूत पुरुषाग्रगण्य भगवान् नारायण से यों बोले। नारदजी कहते हैं - प्रभो ! आप समस्त पदार्थों की उत्पत्ति के कारण हैं। आपने जिसके लिये धर्म के गृह में चार स्वरूपों में अवतार धारण किया है उस प्रयोजन की लोकहित के लिये सिद्धि कीजिये। अब मैं (श्वेतद्वीप में स्थित) आपके आदिविग्रह का दर्शन करने जाता हूँ। लोकनाथ ! मैं गुरुजनों का सदा आदर करता हूँ। किसी की गुप्त बात पहले कभी दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं की है। मैंने वेदों का सवाध्याय किया, तपस्या की और कभी असत्यभाषण नहीं किया है। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार हाथ, पैर, उदर और उपस्थ - इन चारों की मैंने रक्षा की है। शत्रु और मित्र के प्रति मैं सदा समान भाव रखता हूँ। इन आदिदेव परमात्मा श्रीनारायण की निरन्तर शरण लेकर मैं अनन्यभाव से सदा उन्हीं का भजन करता हूँ। इन सब विशेष कारणों से मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है। ऐसी दशा में उन अनन्त परमेश्वर का दर्शन कैसे नहीं कर सकता हूँ ? ब्रह्मपुत्र नारदजी का यह वचन सुनकर सनातन धर्म के रक्षक भगवान् नारायण ने उनकी विधिवत् पूजा करके उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। उनसे विदा लेकर ब्रह्मकुमार नारद उन पुरातन ऋषि नारायण का पूजन करके उत्तम योग से युक्त हो आकाश की ओर उड़े और सहसा मेरु पर्वत पर पहुँचकर अदृश्य हो गये।। मेरु के शिखर पर एकान्त में जाकर नारद मुनि ने दो घड़ी तक विश्राम किया। फिर वहाँ से उत्तर-पश्चिम की ओर दृष्टिपात करने पर उन्होंने पूर्व-वर्णित एक अद्भुत दृश्य देखा।। क्षीरसागर के उत्तर भाग में जो श्वेत नाम से प्रसिद्ध विशाल द्वीप है, वह उनके सामने प्रकअ हो गया। विद्वानों ने उस द्वीप को तेरु पर्वत से बत्तीस हजार योजन ऊँचा बताया है। वहाँ के निवासी इन्द्रियों से रहित, निराहार तथा चेष्टारहित एवं ज्ञानसम्पन्न होते हैं। उनके अंगों से उत्तम सुगंध निकलती रहती है। उस द्वाीप में सब प्रकार के पापों से रहित श्वेत वर्णवाले पुरुष निवास करते हैं। उनकी ओर देखने से पापी मनुष्य की आँखें चैंधिया जाती हैं। उनके शरीर तथा हड्डियाँ वज्र के समान सुदृढ़ होती हैं। वे मान और अपमान को समान समझते हैं। उनके अंग दिव्य होते हैं। वे शुभ (योग के प्रभाव से उत्पन्न) बल से सम्पन्न होते हैं। उनके मस्तक का आकार छत्र के समान और स्वर मेघों की घटा के गर्जन की भाँति गम्भीर होता है। उनके बराबर-बराबर चार भुजाएँ होती हैं। उनके पैर सैंकड़ों कमल सदृश रेखाओं से सुशोभित होते हैं। उनके म ुँह में साठ सफेद दाँत और आठ दाढ़ें होती हैं। वे सूर्य के समान कान्तिमान् तािा सम्पूर्ण विश्व को अपने मुख में रखने वाले महाकाल को भी अपनी जिह्नाओं से चाट लेते हैं। जिनसे सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है, सारे लोक प्रकट हुए हैं, वेद, धर्म, शान्त स्वभाव वाले मुनि तथा सम्पूर्ण देवता जिनकी सृष्टि हैं, उन अनन्त शक्ति-सम्पन्न परमेश्वर को श्वेतद्वीप के निवासी भक्तिभाव से अपने हृदय में धारण करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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