महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 27-36
एकसप्ततितम (71) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
धृतराष्ट्रने कहा— बहु द्रौपदी ! तुम मेरी पुत्रवधुओं में सबसे श्रेष्ठ एवं धर्म परायणा सती हो । तुम्हारी जो इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे वर माँग लो। द्रौपदी बोली—भरतवंश शिरोमणे ! यदि आप मुझे वर देते हुए तो मैं यही माँगती हूँ कि सम्पूर्ण धर्म का आचरण करने-वाले राजा युधिष्ठिर दास भाव से मुक्त हो जायें । जिससे मेरे मनस्वी पुत्र प्रतिविन्ध्य को अज्ञानवश दूसरे राजकुमार ऐसा न कह सकें कि यह ‘दासपुत्र’ है। जैसे पहले राजकुमार होकर फिर कोई मनुष्य कमी दासपुत्र नहीं हुआ है, उसी प्रकार राजाओं के द्वारा जिसका लालन-पालन हुआ है, उस मेरे पुत्र प्रतिविन्ध्य का दासपुत्र होना कदापि उचित नहीं है। धृतराष्ट्रने कहा—कल्याणि ! तुम जैसा कहती हो, वैसे ही हो । भद्रे ! अब मैं तुम्हें दूसरा वर देता हूँ, वह भी माँग लो । मेरा मन मुझे वर देने के लिये प्रेरित कर रहा है कि तुम एक ही वर पाने के योग्य नहीं हो। द्रौपदी बोली—राजन् ! मैं दूसरा वर यह माँगती हूँ कि भीमसेन, अर्जुन,नकुल और सहदेव अपने रथ और धनुष-बाण सहित रहित एवं स्वतन्त्र हो जायँ। धृतराष्ट्रने कहा—महाभागे ! तुम अपने कुल को आनन्द प्रदान करने वाली हो । तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो । अब तुम तीसरा वर और माँगों । तुम मेरी सब पुत्र वधुओं में श्रेष्ठ एवं धर्म का पालन करने वाली हो । मैं समझता हूँ, केवल दो घरों से तुम्हारा पूरा सत्कार नहीं हुआ। द्रौपदी बोली—भगवन् ! लोभ धर्म का नाशक होता है, अत: अब मेरे मन में वर माँगने का उत्साह नहीं है । राजशिरोमणे ! तीसरा वर लेने का मुझे अधिकार भी नहीं है। राजेन्द्र ! वैश्य को एक वर माँगने का अधिकार बताया गया है, क्षत्रिय की स्त्री वर माँग सकती है, क्षत्रिय को तीन तथा ब्राह्माण को सो वर लेने का अधिकार है। राजन् ! ये मेरे पति दासभाव को प्राप्त होकर भारी विपत्ति में फँस गये थे । अब उससे पार हो गये । इसके बाद कर्मों के अनुष्ठान द्वारा ये लोग स्वयं कल्याण प्राप्त कर लेंगे।
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