महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 15-26
एकसप्ततितम (71) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
उस समय क्रोध में भरे हुए भीमसेन के रोम-रोम से आग की चिनगारियाँ निकल रही थी; ठीक उसी तरह, जैसे जलते हुए वृक्ष के कोटरों से आग की लपटें निकलती दिखायी देती हैं। विदुरजी ने कहा—धृतराष्ट्र के पुत्रों ! देखो, भीमसेन- से यह बड़ा भारी मय उपस्थित हो गया है । इस पर ध्यान दो । निश्चय ही प्रारब्ध की प्रेरणा से ही भरतवंशियों के समक्ष यह महान् अन्याय उत्पन्न् हुआ है। धृतराष्ट्र के पुत्रों । तुम लोगों ने मर्यादा का उल्लंघन करके यह जूए का खेल किया है । तभी तो तुम भरी सभा में स्त्री को लाकर उसके लिये विवाद कर रहे हो । तुम्हारे योग और क्षेम दोनों पूर्णतया नष्ट हो रहे हैं । आज सब लोगों को मालूम हो गया कि कौरव पापपूर्ण मन्त्रणा ही करते हैं । कौरवों ! तुम धर्म की इस महत्ता को शीघ्र ही समक्ष लो; क्योंकि धर्म का नाश होने पर सारी सभा को दोष लगता है । यदि जूआ खेलने वाले राजा युधिष्ठिर अपने शरीर को हारे बिना पहले ही इस द्रौपदी को दाँव पर लगाते तो वे ऐसा करने के अधिकारी हो सकते थे। (परंतु वे पहले अपने को हारकर उसे दाँव पर लगाने का अधिकार ही खो बैठे थे, तब उसका मूल्य ही क्या रहा ?) अनधिकारी पुरूष जिस धन को दाँव पर लगता है, उसकी हार-जीत मैं वैसी ही मानता हूँ जैसे कोई स्वप्र में किसी धन को हारता या जीतता है । कौरवो ! तुम लोग गान्धारराज शकुनि की बात सुनकर अपने धर्म से भ्रष्ट न होओ। दुर्योधन बोला—द्रौपदी ! मैं भीम,अर्जुन एवं नकुल-सहदेव की बात मानने के लिए तैयार हूँ । ये सब लोग कह दें कि युधिष्ठिर को तुम्हें हारने का कोई अधिकार नहीं था, फिर तुम दासीपन से मुक्त कर दी जाओगी। अर्जुनने कहा—कुन्तीनन्दन महात्मा धर्मराज राजा युधिष्ठिर पहले तो हमें दाँव पर लगाने के अधिकारी थे ही, किंतु जब वे अपने शरीर को ही हार गये, तब किस के स्वामी रहे ? इस बात पर सब कौरव विचार करें। वैशम्पायनजी कहते हैं —जनमेजय ! तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्र अग्रिशाला के भीतर एक गीदड़ आकर जोर-जोर से हुँआ- हुँआ करने लगा । उस शब्द को लक्ष्य करके सब ओर गदहे रेंकने लगे तथा गृघ्र आदि भयंकर पक्षी भी चारों ओर अशुभसूचक कोलाहल करने लगे। तत्वज्ञानी विदुर तथा सुबलपुत्री गान्धारी ने भी उस भयानक शब्द को सुना । भीष्म, द्रोण, और गौतमवंशीय विद्वान् कृपाचार्य के कानों में भी वह अमंगलकारी शब्द सुन पड़ा । फिर तो वे सभी लोग उच्च स्वर से ‘स्वस्ति’ ‘स्वस्ति’ ऐसा कहने लगे। तदनन्तर गान्धारी और विद्वान् विदुर ने उस उत्पात सूचक भयंकर शब्द को लक्ष्य करके अत्यन्त दुखी हो राजा धृतराष्ट्र से उसके विषय में निवेदन किया, तब राजा ने इस प्रकार कहा। धृतराष्ट्र बोले—रे मन्दबुद्धि दुर्योधन ! तू तो जीता ही मारा गया । दुर्विनीत ! तू श्रेष्ठ कुरूवंशियों की सभा में अपने ही कुल की महिला एवं विशेषत: पाण्डवों की धर्म पत्नी को ले आकर उससे पापपूर्ण बाते कर रहा है । ऐसा कहकर बन्धु-बान्धवों को विनाश से बचाकर उनके हित की रखने वाले तत्वदर्शी एवं मेघावी राजा धृतराष्ट्र ने अपनी बुद्धि से इस दु:खद प्रसंग पर विचार करके पांचाल राजकुमारी कृष्णा को सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा।
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