श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 26-38

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दशम स्कन्ध: दवाविंशोंऽध्यायः (22) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दवाविंशोंऽध्यायः श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद

जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं। ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुर के रूप में उगने के योग्य नहीं रह जाते । इसलिये कुमारियो! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गई है। तुम आने वाली शरद् ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सतियो! इसी उद्देश्य से तो तुमलोगों ने यह व्रज और कात्यायनी देवी की पूजा की थी’[१]

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करतीं हुईं जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से व्रज में गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं । प्रिय परीक्षित्! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये ।

ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर छत्ते का काम कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने वृक्षों को छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुनल, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरुथप आदि ग्वालों को सम्बोधन करके कहा—

‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला—सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं ।

मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुष के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ।

ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी लोगों की कामना पूर्ण करते हैं ।

मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है कि जहाँ तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो ।

परीक्षित्! दोनों ओर से वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तों से लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वी तक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उन्हीं के बीच से यमुना तटपर निकल आये । राजन्! यमुनाजी का जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगों ने पहले गौओं को पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जल का पान किया ।

परीक्षित्! जिस समय यमुनाजी के तटपर हरे-भरे उपवन में बड़ी स्वतन्त्रता से अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालों ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के पास आकर यह बात कही ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चीर-हरण के प्रसंग को लेकर कई तरह शंकाएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्ध में कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तव में बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य बहुत थोड़े लोगों को होता है। जिस प्रकार भगवान चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है। सच्चिदानन्द रसमय-साम्राज्य के जिस परमोन्नत स्तर में यह लीला हुआ करती है उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञान-स्वरुप विशुद्ध चेतन परम ब्रम्ह में भी उसका प्राकट्य नहीं होता, और इसीलिये ब्रम्ह-साक्षात्कार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रस का समास्वादन नहीं कर पाते। भगवान की इस परमोज्जवल दिव्य-रस-लीला का यथार्थ प्रकाश तो भगवान की स्वरुपभूता ह्रादिनी शक्ति नित्य निकुंजेश्वरी श्रीवृषभानु नन्दिनी श्रीराधाजी और तदंगभूता प्रेममयी गोपियों के ही ह्रदय में होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान की इस परम अन्तरंग रसमयी लीला का समास्वादन करती हैं।
    यों तो भगवान के जन्म-कर्म की सभी लीलाएँ दिव्य होती हैं, परन्तु व्रज की लीला, व्रज में निकुंज लीला और निकुंज में भी केवल रसमयी गोपियों के साथ होने वाली मधुर लीला तो दिव्याति दिव्य और सर्वगुह्यतम है। यह लीला सर्व साधारण के सम्मुख प्रकट नहीं है, अन्तरंग लीला है और इसमें प्रवेश का अधिकार केवल श्रीगोपीजनों को ही है। अस्तु,
    दशम स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय में ऐसा वर्णन आया है कि भगवान की रूप-माधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गयीं। बाईसवें अध्याय में उसी प्रेम की पूर्णता प्राप्त करने के लिये वे साधन में लग गयी हैं। इसी अध्याय में भगवान ने आकर उनकी साधना पूर्ण की है। यही चीर-हरण का प्रसंग है।
    गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधना से स्पष्ट है। वे चाहती थीं—श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आत्म समर्पण, श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-काल में उन्होंने श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि की चर्चा आपस में की थी, हेमन्त के पहले ही महीने में अर्थात् भगवान के विभूतिस्वरुप मार्ग शीर्ष में उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़े के दिन में वे प्रातःकाल ही यमुना-स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिने एक साथ ही जातीं, उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करतीं थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्य में—उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही। परन्तु लीला की दृष्टि से उनके समर्पण में थोड़ी कमी थी। वे निरावरणरूप से श्रीकृष्ण के सामने नहीं जा रही थी, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करने के लिये—उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरुरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुनातट पर पधारे थे।
    साधन अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को भी स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है—पूर्ण समर्पण की तैयारी। उसे पूर्ण तो भगवान ही करता है।
    भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब अपनी लीला प्रकट करते हैं, तब मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता। परन्तु ह्रदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी शिथिल कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके नग्न-स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।
    वैधी भक्ति का पर्यवसान रागात्मिका भक्ति में है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका ह्रदय तो रागात्मिका भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीर-हरण के द्वारा वही कार्य सम्पन्न होता है।
    गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, जिनकी प्राप्ति के लिये उनका यह महान् अनुष्ठान है, जिनके चरणों में उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनके निरावरण मिलन की ही एकमात्र अभिलाषा है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान श्रीकृष्ण के सामने वे निरावरण भाव से न जा सकें—क्या यह उनकी साधना की अपूर्णता नहीं है ? है, अवश्य है। और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरण रूप से उनके सामने गयीं।
    श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं हैं जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। वही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियों के, गोपों के और निखिल विश्व के वही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्हीं की उपासना करते हैं। गोपियाँ उन्हीं भगवान को जान-बूझकर कि यही भगवान हैं—यही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैं—पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का श्रद्धा भाव से पाठ कर जाने पर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती हैं कि गोपियाँ श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरुप को जानती थीं, पहचानती थीं। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर गोपियों के अन्वेषण में यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है। जो लोग भगवान को भगवान मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते है, स्वामी-सुहृद् आदि के रूप में इन्हें मानते हैं, उनके ह्रदय में गोपियों के इस लोकोत्तर माधुर्य सम्बन्ध और उसकी साधना के प्रति शंका ही कैसे हो सकती है।
    गोपियों की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेणी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात् परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि हमारी दृष्टि देह तक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल वैदिक तथा कामना कलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओं का हानि कर परिणाम है। जीव का मन भोगाभिमुख वासनाओं से और तमोगुणी प्रवृत्तियों से अभिभूत रहता है। वह विषयों में ही इधर-से-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकार के रोग-शोक से आक्रन्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मों के फल उदय होने पर भगवान की अचिन्त्य अहैतुकी कृपा से विचार का उदय होता है, तब जीव दुःख ज्वाला से त्राण पाने के लिये और अपने प्राणों को शान्तिमय धाम में पहुँचाने के लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान के लीलाधामों की यात्रा करता है, सत्संग प्राप्त करता है और उसके ह्रदय की छटपटी उस आकांक्षा को लेकर, जो अब तक सुप्त थी, जगकर बड़े वेग से परमात्मा की ओर चल पड़ती है। चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपों का सामना करना पड़ता है। परन्तु भगवान की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान की सन्निधि का अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रस का अनुभव होते ही चित्त बड़े वेग से अन्तर्देश में प्रवेश कर जाता है और भगवान मार्ग दर्शक के रूप में संसार-सागर से पार ले जाने वाली नाव पर केवट के रूप में अथवा यों कें कि साक्षात् चित्स्वरुप गुरुदेव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमा का बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द—विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति होने लगती है।
    गोपियाँ, जो अभी-अभी साधन सिद्ध होकर भगवान की अन्तरंग लीला में प्रविष्ट होने वाली हैं, चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धि लाभ के समीप पहुँच चुकी हैं। अथवा जो नित्यसिद्धा होने पर भी भगवान की इच्छा के अनुसार उनकी दिव्य लीला में सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके ह्रदय के समस्त भावों के एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके ह्रदय में बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालने के लिये साधना में लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियों से कितना प्रेम करते हैं—यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।
    श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर बैठ गये। गोपियाँ जल में थीं, वे जल में सर्वव्यापक सर्वदर्शी भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रही थीं—वे मानो इस तत्व को भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं हैं, स्वयं जल स्वरुप भी वही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परन्तु अब तक अपने को नहीं भूली थीं। वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्ण को, परन्तु उनके संस्कार बीच में एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतम के बीच में एक पुष्प का भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधान रहित, अबाध और अनन्त मिलन। जहाँ तक अपना सर्वस्व-इसका विस्तार चाहे जितना हो—प्रेम की ज्वाला में भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँ तक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णता को दूर करते हुए, ‘शुद्ध भाव से प्रसन्न हुए’ (शुद्ध भाव प्रसादितः) श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली गोपियों! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्व को और अपने को भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे ह्रदय में जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षण के लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो ?’ गोपियों ने मानो कहा—‘श्रीकृष्ण! हम अपने को कैसे भूलें ? हमारी जन्म-जन्म की धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसार के अगाध जल में आकण्ठ मग्न हैं। जाड़े का कष्ट भी है। हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती हैं। श्यामसुन्दर! प्राणों के प्राण! हमारा ह्रदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेंगी। परन्तु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’ साधक की यह दशा—भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारों में ही उलझे रहना—माया के परदे को बनाये रखना, बड़ी द्विविधा दशा है। भगवान यही सिखाते हैं कि ‘संस्कार शून्य होकर, निरावरण होकर, माया का परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ। अरे, तुम्हारा यह मोह का परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो ? यह परदा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ। अब तुम मेरे पास आओ, अभी तुम्हारी चिर संचित आकांक्षाएँ पूरी हो सकेंगी।’ परमात्मा श्रीकृष्ण यह आह्वान, आत्मा के आत्मा परम प्रियतम के मिलन का यह मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपा से जिसके अन्तर्देश में प्रकट हो जाता है, वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोड़कर, छोड़ना ही भूलकर प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ आता है। फिर न उसे अपने वस्त्रों की सुधि रहती है और न लोगों का ध्यान! न वह जगत् को देखता है न अपने को। यह भगवत्प्रेम का रहस्य है। विशुद्ध आर अनन्य भगवत्प्रेम में ऐसा होता ही है।
    गोपियाँ आयीं, श्रीकृष्ण के चरणों के पास मूक भाव से खड़ी हो गयीं। उनका मुख लज्जावनत था। यत्किञ्बित् संस्कार शेष श्रीकृष्ण के पूर्ण आभिमुख्य में प्रतिबन्ध हो रहा था। श्रीकृष्ण मुसकराये। उन्होंने इशारे से कहा—‘इतने बड़े त्याग में यह संकोच कलंक है। तुम तो सदा निष्कलंक हो; तुम्हें इसका भी त्याग, त्याग के भाव का भी त्याग—त्याग की स्मृति का भी त्याग करना होगा।’ गोपियों की दृष्टि श्रीकृष्ण के मुखकमल पर पड़ी। दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गये और सूर्य मण्डल में विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से ही उन्होंने प्रेम की भिक्षा माँगी। गोपियों के इसी सर्वस्व त्यागने, इसी पूर्ण समर्पण ने, इसी उच्चतम आत्म विस्मृति ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम से भर दिया। वे दिव्य रस के अलौकिक अप्राकृत मधु के अनन्त समुद्र में डूबने-उतराने लगीं। वे सब कुछ भूल गयीं, भूलने वाले को भी भूल गयीं, उनकी दृष्टि में अब श्यामसुन्दर थे। बस, केवल श्यामसुन्दर थे।
    जब प्रेमी भक्त आत्म विस्मृत हो जाता है तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान पर होता है। अब मर्यादा रक्षा के लिये गोपियों को तो वस्त्र की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी। परन्तु श्रीकृष्ण अपने प्रेमी को मर्यादाच्युत नहीं होने देते। वे स्वयं वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा उन्हें विस्मृति से जगाकर फिर जगत् में लाते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा—‘गोपियों! तुम सती साध्वी हो। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है। तुम्हारा संकल्प सत्य होगा। तुम्हारा यह संकल्प—तुम्हारी यह कामना तुम्हें उस पद पर स्थित करती है, जो निस्संकल्पता और निष्कामता है। तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण पूर्ण और आगे आने वाली शारदीय रात्रियों में हमारा रमण पूर्ण होगा। भगवान ने साधना साल होने की अवधि निर्धारित कर दी। इससे भी स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण में किसी भी काम विकार की कल्पना नहीं थी। कामी पुरुष का चित्त वस्त्रहीन स्त्रियों को देखकर एक क्षण के लिये भी कब वश में रह सकता है।
    एक बात बड़ी—विलक्षण हैं। भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे विक्षेप का काम कर रहे थे—वही भगवान की कृपा, प्रेम, सान्निध्य और वरदान प्राप्त होने के पश्चात् ‘प्रसाद’-स्वरुप हो गये। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है भगवान का सम्बन्ध। भगवान ने अपने हाथ से उन वस्त्रों को उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर रख लिया था। नीचे के शरीर में पहनने की साड़ियाँ भगवान के कंधे पर चढ़कर—उनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र—कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असल में यह संसार तभी तक बाधक और विक्षेपजनक है, जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता। उनके द्वारा प्राप्त होने पर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरुप हो जाता है। उनके सम्पर्क में जाकर माया शुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्द रस से परिपूर्ण हो जाते हैं। तब बन्धन का भय नहीं रहता। कोई भी आवरण भगवान के दर्शन से वन्चित नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान का दर्शन होते रहने के कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इसी स्थिति में पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुष के समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की अपनी होकर गोपियाँ पुनः वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परन्तु गोपियों की दृष्टि में अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुतः वे हैं भी नहीं—अब तो ये दूसरी वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान के पावन प्रसाद हैं, पल-पल पर भगवान का स्मरण कराने वाले भगवान के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसी से उन्होंने स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादा के ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान की इच्छा से मर्यादा स्वीकार की। इस दृष्टि से विचार करने पर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओं की भाँति उच्चतम मर्यादा से परिपूर्ण है।
    भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं जिनमें उनकी लीला का वर्णन हुआ है। उनमें से एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण की भगवत्ता का वर्णन न हो। श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान हैं’ यही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओं के आधार पर श्रीकृष्ण-चरित्र की समीक्षा करने का अधिकार भी नहीं रखते। भगवान की लीलाओं को मानवीय चरित्र के समकक्ष रखना शस्त्र-दृष्टि से एक महान् अपराध है और उसके अनुकरण का तो सर्वथा ही निधेध है। मानव बुद्धि—जो स्थूलताओं से ही परिवेष्टित है—केवल जड़ के सम्बन्ध में ही सोच सकती है, भगवान की दिव्य चिन्मयी लीला के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियों के प्रेरक और बुद्धियों से अत्यन्त परे रहने वाने परमात्मा की दिव्य लीला को अपनी कसौटी पर कसती है।
    ह्रदय और बुद्धि के के सर्वथा विपरीत होने पर भी यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्ति के सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती जो श्रीकृष्ण के चरित्र में लाञ्छन हो। श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाले जानते हैं कि व्रज में श्रीकृष्ण ने केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था तक ही निवास किया था। यदि रासलीला का समय दसवाँ वर्ष मानें तो नवें वर्ष में ही चीरहरण लीला हुई थी। इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्ष के बालक में कामोत्तेजना हो सकती है। गाँव की गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमानकाल की नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्ष के बालक से अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करें—यह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियों की मन में कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्ति की उत्तंगा है। आज कल जैसे गाँव की छोटी-छोटी लडकियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पाने के लिये देवी-देवताओं की पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियों ने भी परम सुन्दर, परम मधुर श्रीकृष्ण को पाने के लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोष की कौन-सी बात है ?
    आज की बात निराली है। भोग प्रधान देशों में तो नग्न सम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने हुए हैं। उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्ति तक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एवं मलिन व्यापार के विरुद्ध है। नग्नस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्व को बढ़ाने वाला है। शास्त्रों में इसका निषेध है, ‘न नग्नः स्नाचात्’—यह ही नहीं—भारतीय ऋषियों का वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तु में पृथक्-पृथक् देवताओं का आस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नान को देवताओं के विपरीत बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवता का अपमान होता है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्नस्नान अनिष्ट फल देने वाला सकता था और इस प्रथा के प्रभात में ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्ण ने अलौकिक ढंग से निषेध कर दिया।
    गाँवों की ग्वालिनों को इस प्रथा की बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्ण ने एक मौलिक उपाय सोचा। यदि वे गोपियों के पास जाकर उन्हें देवतावाद की फिलासफी समझाते तो वे सरलता से नहीं समझ सकती थीं। उन्हें तो इस प्रथा के कारण होने वाली विपत्ति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देना था। और विपत्ति का अनुभव कराने के पश्चात् उन्होंने देवताओं के अपमान की बात भी बता दी तथा अंजलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थना रूप प्रायश्चित भी करवाया। महापुरुषों में उनकी बाल्यवस्था में भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है।
    श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्ष के थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्नस्नान की कुप्रथा को नष्ट करने के लिये उन्होंने चीरहरण किया—यह उत्तर सम्भव होने पर भी भी मूल के आये हुए ‘काम’ और ‘रमण’ शब्दों से कई लोग भड़क उठते हैं। यह केवल शब्द की पकड़ है, जिस पर महात्मा लोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियों में और गीता में भी अनेकों बार ‘काम’ ‘रमण’ और ‘रति’ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है; परन्तु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता। गीता में तो ‘धर्माविरुद्ध काम’ तो परमात्मा का स्वरुप बतलाया गया है। महापुरुषों का आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थिति में केवल कुछ शब्दों को देखकर भड़कना विचार शील पुरुषों का काम नहीं है। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति शब्द का अर्थ केवल क्रीड़ा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरण के अनुसार ठीक है—‘रमु क्रीडायाम्’।
    दृष्टि भेद से श्रीकृष्ण की लीला भिन्न-भिन्न रूप में दीख पड़ती है। अध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को आत्मा के रूप में देखते हैं और गोपियों को वृत्तियों के रूप में। वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आत्मा में रम जाना ही ‘रास’ है। इस दृष्टि से भी समस्त लीलाओं की संगति बैठ जाती है। भक्तों की दृष्टि से गो लोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का यह सब नित्य लीला-विलास है और अनादिकाल से अनन्तकाल तक यह नित्य चलता रहता है। कभी-कभी भक्तों पर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचारियों के साथ लीला-धाम में प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तों के स्मरण-चिन्तन तथा आनन्दमंगल की सामग्री प्रकट करके पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं। साधकों के लिये किस प्रकार कृपा करके भगवान अन्तर्मल को और अनादि काल से सञ्चित संस्कार पट को विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी चीरहरण-लीला से प्रकट होती है। भगवान की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्व केवल भगवान ही जानते हैं और उनकी कृपा से उनकी लीला में प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं। यहाँ तो शास्त्रों और संतों की वाणी के आधार पर ही कुछ लिखने की धृष्टता की गयी है।
    हनुमानप्रसाद पोद्दार

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