श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 12-20

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः (15)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद
कृष्ण विरह व्यथित पाण्डवों का परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना


उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वती सहित भगवान शंकर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसन पर बैठने का सम्मान मैंने प्राप्त किया । उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया ? महाराज! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परन्तु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायता से, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अंगों के अलंकार तक छीन लिये थे । भाईजी! कौरवों की सेना, भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे । द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझ पर अपने कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे; परन्तु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लाद का सपर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहने का ही प्रभाव था । श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी । महाराज! माधव के उन्मुक्त और मधुर मुसकान से युक्त, विनोदभरे एवं ह्रदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आने पर मेरे ह्रदय में उथल-पुथल मचा देते हैं । सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करने में हम प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे। महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं-नहीं मेरे ह्रदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-