श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-11
प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः (15)
सूतजी कहते हैं—भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी । शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके । श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गले से अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा। अर्जुन बोले—महाराज! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया । जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षण भर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगता है । उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुष पर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था । उनकी सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव को उनकी तृप्ति के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मयदानव की निर्माण की हुई, अलौकिक कला कौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटे समर्पित कीं । दस हजार हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिर पर पैर रखने वाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ बलि चढ़ाने के लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे । महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान् अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छूने का साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों की ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े । वनवास के समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करने वाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनि मण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है[१]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक बार राजा दुर्योधन ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनि ने दुर्योधन से वर माँगने को कहा। दुर्योधन ने यह सोचकर कि ऋषि के शाप से पाण्डवों को नष्ट करने का अच्छा अवसर हैं, मुनि से कहा—“ब्रह्मन्! हमारे कुल में युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्त्र शिष्यों सहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूख का कष्ट न उठाना पड़े।” द्रौपदी के पास सूर्य की दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदी के भोजन कर लेने से पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करने के बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधन के कथनानुसार उसके भोजन कर चुकने पर मध्याह्न में अपनी शिष्य मण्डली सहित पहुँचे और धर्मराज से बोले—“हम नदी पर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।” इससे द्रौपदी को बड़ी चिन्ता हुई और उसके अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ली। भगवान् तुरंत ही अपना विलास भवन छोड़कर द्रौपदी की झोपड़ी पर आये और उससे बोले—‘कृष्णे! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खाने को दो।” द्रौपदी भगवान् की इस अनुपम दया से गद्गद हो गयी और बोली, “प्रभो! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भर ने मुझसे भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ ? अब तो कुटी में कुछ भी नहीं है।” भगवान् ने कहा—“अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।” द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाक का एक कण लगा था। विश्वात्मा हरि ने उसी को भोग लगाकर त्रिलोकी को तृप्त कर दिया और भीमसेन से कहा कि मुनिमण्डली को भोजन के लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)
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