श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-16

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प्रथम स्कन्धः षष्ठ अध्यायः(6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग


श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकजी! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवती नन्दन भगवान श्रीव्यासजी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया । श्रीव्यासजी ने पूछा—नारदजी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया ? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी। स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया ? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया ? श्रीनारदजी ने कहा—मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत किया—यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी । मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था । वह मेरे योग क्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थीं, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन हैं । मैं भी अपनी माँ के स्नेह बन्धन में बँधकर उस ब्राम्हण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था । एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी । मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं। शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौरें मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था । चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी । उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, ह्रदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरुप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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