"महाभारत मौसल पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-35" के अवतरणों में अंतर

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==तृतीय (3) अध्याय: मौसल पर्व==
 
==तृतीय (3) अध्याय: मौसल पर्व==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
 
पीते-पीते सात्यकि मद से उन्मत्त हो उठा और यादवों की उस सभा में कृतवर्मा का उपहास तथा अपमान करते हुए इस प्रकार बोले-‘हार्दिक्य ! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा क्षत्रिय होगा जो अपने ऊपर आघात न होते हुए भी रात में मुर्दों के समान अचेत पड़े हुए मनुष्यों की हत्या करेगा । तूने जो अन्याय किया है उसे यदुवंशी कभी क्षमा नहीं करेंगे ’। सात्यकि के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने कृतवर्मा का तिरस्कार करके सात्यकि के उपर्युक्त वचन की प्रशंसा एवं अनुमोदन किया। यह सुनकर कृतवर्मा अत्यन्त कुपित हो उठा और बायें हाथ से अंगुलिका इशारा करके सात्यकि का अपमान करता हुआ बोला- ‘अरे ! युद्ध में भूरिश्रवा की बाँह कट गयी थी और वे मरणान्त उपवास का निश्चय करके पृथ्वी पर बैठ गये थे, उस अवस्था में तूने वीर कहला कर भी उन की क्रूरता पूर्ण हत्या क्यों की ?’। कृतवर्मा की यह बात सुनकर शत्रु वीरों का संहार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया । उन्होंने रोषपूर्ण टेढ़ी दृष्टि से उसकी ओर देखा। उस समय सात्यकि ने मधुसूदन को सत्राजित् के पास जो स्यमन्तक मणि थी उस की कथा कह सुनायी (अर्थात् यह बताया कि कृतवर्माने ही मणि के लोभ से सत्राजित् का वध करवाया था)। यह सुनकर सत्यभामा के क्रोध की सीमा न रही । वह श्रीकृष्ण का क्रोध बढ़ाती और रोती हुई उनके अंक में चली गयी। तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि उठे और इस प्रकार बोले-‘सुमध्यमे ! यह देखो, मैं द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के, धृष्टद्युम्न के और शिखण्डी के मार्ग पर चलता हूँ अर्थात् उनके मारने का बदला लेता हूँ और सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि जिस पापी दुरात्मा कृतवर्मा ने द्रोणपुत्र का सहायक बनकर रात में सोते समय उन वीरों का वध किया था आज उसकी भी आयु और यश का अन्त हो गया ’। ऐसा कहकर कुपित हुए सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पास से दौड़कर तलवार से कृतवर्मा का सिर काट लिया। फिर वे दूसरे-दूसरे लोगों का भी सब ओर घूमकर वध करने लगे । यह देख भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रोकने के लिये दौड़े। महाराज ! इतने ही में काल की प्रेरणा से भोज और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने एक मत होकर सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया। उन्हें कुपित होकर तुरंत धावा करते देख महातेजस्वी श्रीकृष्ण काल के उलट-फेर को जानने के कारण कुपित नहीं हुए। वे सब-के-सब मदिरापान जनित मद के आवेश से उन्मत्त हो उठे थे । इधर कालधर्मा मृत्यु भी उन्हें प्रेरित कर रहा था । इसलिये वे जूठे बरतनों से सात्यकि पर आघात करने लगे। जब सात्यकि इस प्रकार मारे जाने लगे तब क्रोध में भरे हुए रूक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न उन्हें संकट से बचाने के लिये स्वयं उनके और आक्रमणकारियों के बीच में कूद पड़े। प्रद्युम्न भोजों से भिड़ गये और सात्यकि अन्धकों के साथ जूझने लगे । अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर बड़े परिश्रम के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। परंतु विपक्षियों की संख्या बहुत अधिक थी; इसलिये वे दोनों श्रीकृष्ण के देखते-देखते उन के हाथ से मार डाले गये । सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली।  
 
पीते-पीते सात्यकि मद से उन्मत्त हो उठा और यादवों की उस सभा में कृतवर्मा का उपहास तथा अपमान करते हुए इस प्रकार बोले-‘हार्दिक्य ! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा क्षत्रिय होगा जो अपने ऊपर आघात न होते हुए भी रात में मुर्दों के समान अचेत पड़े हुए मनुष्यों की हत्या करेगा । तूने जो अन्याय किया है उसे यदुवंशी कभी क्षमा नहीं करेंगे ’। सात्यकि के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने कृतवर्मा का तिरस्कार करके सात्यकि के उपर्युक्त वचन की प्रशंसा एवं अनुमोदन किया। यह सुनकर कृतवर्मा अत्यन्त कुपित हो उठा और बायें हाथ से अंगुलिका इशारा करके सात्यकि का अपमान करता हुआ बोला- ‘अरे ! युद्ध में भूरिश्रवा की बाँह कट गयी थी और वे मरणान्त उपवास का निश्चय करके पृथ्वी पर बैठ गये थे, उस अवस्था में तूने वीर कहला कर भी उन की क्रूरता पूर्ण हत्या क्यों की ?’। कृतवर्मा की यह बात सुनकर शत्रु वीरों का संहार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया । उन्होंने रोषपूर्ण टेढ़ी दृष्टि से उसकी ओर देखा। उस समय सात्यकि ने मधुसूदन को सत्राजित् के पास जो स्यमन्तक मणि थी उस की कथा कह सुनायी (अर्थात् यह बताया कि कृतवर्माने ही मणि के लोभ से सत्राजित् का वध करवाया था)। यह सुनकर सत्यभामा के क्रोध की सीमा न रही । वह श्रीकृष्ण का क्रोध बढ़ाती और रोती हुई उनके अंक में चली गयी। तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि उठे और इस प्रकार बोले-‘सुमध्यमे ! यह देखो, मैं द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के, धृष्टद्युम्न के और शिखण्डी के मार्ग पर चलता हूँ अर्थात् उनके मारने का बदला लेता हूँ और सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि जिस पापी दुरात्मा कृतवर्मा ने द्रोणपुत्र का सहायक बनकर रात में सोते समय उन वीरों का वध किया था आज उसकी भी आयु और यश का अन्त हो गया ’। ऐसा कहकर कुपित हुए सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पास से दौड़कर तलवार से कृतवर्मा का सिर काट लिया। फिर वे दूसरे-दूसरे लोगों का भी सब ओर घूमकर वध करने लगे । यह देख भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रोकने के लिये दौड़े। महाराज ! इतने ही में काल की प्रेरणा से भोज और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने एक मत होकर सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया। उन्हें कुपित होकर तुरंत धावा करते देख महातेजस्वी श्रीकृष्ण काल के उलट-फेर को जानने के कारण कुपित नहीं हुए। वे सब-के-सब मदिरापान जनित मद के आवेश से उन्मत्त हो उठे थे । इधर कालधर्मा मृत्यु भी उन्हें प्रेरित कर रहा था । इसलिये वे जूठे बरतनों से सात्यकि पर आघात करने लगे। जब सात्यकि इस प्रकार मारे जाने लगे तब क्रोध में भरे हुए रूक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न उन्हें संकट से बचाने के लिये स्वयं उनके और आक्रमणकारियों के बीच में कूद पड़े। प्रद्युम्न भोजों से भिड़ गये और सात्यकि अन्धकों के साथ जूझने लगे । अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर बड़े परिश्रम के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। परंतु विपक्षियों की संख्या बहुत अधिक थी; इसलिये वे दोनों श्रीकृष्ण के देखते-देखते उन के हाथ से मार डाले गये । सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली।  

०६:३६, ९ जुलाई २०१५ का अवतरण

तृतीय (3) अध्याय: मौसल पर्व

महाभारत: मौसल पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

पीते-पीते सात्यकि मद से उन्मत्त हो उठा और यादवों की उस सभा में कृतवर्मा का उपहास तथा अपमान करते हुए इस प्रकार बोले-‘हार्दिक्य ! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा क्षत्रिय होगा जो अपने ऊपर आघात न होते हुए भी रात में मुर्दों के समान अचेत पड़े हुए मनुष्यों की हत्या करेगा । तूने जो अन्याय किया है उसे यदुवंशी कभी क्षमा नहीं करेंगे ’। सात्यकि के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने कृतवर्मा का तिरस्कार करके सात्यकि के उपर्युक्त वचन की प्रशंसा एवं अनुमोदन किया। यह सुनकर कृतवर्मा अत्यन्त कुपित हो उठा और बायें हाथ से अंगुलिका इशारा करके सात्यकि का अपमान करता हुआ बोला- ‘अरे ! युद्ध में भूरिश्रवा की बाँह कट गयी थी और वे मरणान्त उपवास का निश्चय करके पृथ्वी पर बैठ गये थे, उस अवस्था में तूने वीर कहला कर भी उन की क्रूरता पूर्ण हत्या क्यों की ?’। कृतवर्मा की यह बात सुनकर शत्रु वीरों का संहार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया । उन्होंने रोषपूर्ण टेढ़ी दृष्टि से उसकी ओर देखा। उस समय सात्यकि ने मधुसूदन को सत्राजित् के पास जो स्यमन्तक मणि थी उस की कथा कह सुनायी (अर्थात् यह बताया कि कृतवर्माने ही मणि के लोभ से सत्राजित् का वध करवाया था)। यह सुनकर सत्यभामा के क्रोध की सीमा न रही । वह श्रीकृष्ण का क्रोध बढ़ाती और रोती हुई उनके अंक में चली गयी। तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि उठे और इस प्रकार बोले-‘सुमध्यमे ! यह देखो, मैं द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के, धृष्टद्युम्न के और शिखण्डी के मार्ग पर चलता हूँ अर्थात् उनके मारने का बदला लेता हूँ और सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि जिस पापी दुरात्मा कृतवर्मा ने द्रोणपुत्र का सहायक बनकर रात में सोते समय उन वीरों का वध किया था आज उसकी भी आयु और यश का अन्त हो गया ’। ऐसा कहकर कुपित हुए सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पास से दौड़कर तलवार से कृतवर्मा का सिर काट लिया। फिर वे दूसरे-दूसरे लोगों का भी सब ओर घूमकर वध करने लगे । यह देख भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रोकने के लिये दौड़े। महाराज ! इतने ही में काल की प्रेरणा से भोज और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने एक मत होकर सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया। उन्हें कुपित होकर तुरंत धावा करते देख महातेजस्वी श्रीकृष्ण काल के उलट-फेर को जानने के कारण कुपित नहीं हुए। वे सब-के-सब मदिरापान जनित मद के आवेश से उन्मत्त हो उठे थे । इधर कालधर्मा मृत्यु भी उन्हें प्रेरित कर रहा था । इसलिये वे जूठे बरतनों से सात्यकि पर आघात करने लगे। जब सात्यकि इस प्रकार मारे जाने लगे तब क्रोध में भरे हुए रूक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न उन्हें संकट से बचाने के लिये स्वयं उनके और आक्रमणकारियों के बीच में कूद पड़े। प्रद्युम्न भोजों से भिड़ गये और सात्यकि अन्धकों के साथ जूझने लगे । अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर बड़े परिश्रम के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। परंतु विपक्षियों की संख्या बहुत अधिक थी; इसलिये वे दोनों श्रीकृष्ण के देखते-देखते उन के हाथ से मार डाले गये । सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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