"महाभारत वन पर्व अध्याय 97 श्लोक 19-25": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==सप्‍तनवतितमो (97) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )==...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति १: पंक्ति १:
==सप्‍तनवतितमो (97) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )==
==सप्‍तनवतितम (97) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: सप्‍तनवतितमोअध्‍याय: श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: सप्‍तनवतितम अध्‍याय: श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद</div>


‘अन्‍यथा मैं यह जीर्ण शीर्ण काषाय –वस्‍त्र पहनकर आपके साथ समागम नहीं करुँगी। ब्रह्मार्षे! तपस्‍वीजनों का यह पवित्र  आभूषण किसी प्रकार सम्‍भोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं होना चाहिये’ । अगस्‍त्‍यजी ने कहा- सुन्‍दर कटिप्रदेशवाली कल्‍याणी लोपामुद्रे! तुम्‍हारे पिता के घर में जैसे धन–वैभव हैं, वे न तो तुम्‍हारे पास है और न मरे ही पास (फिर ऐसा कैसे हो सकता है?) । लोपामुद्रा बोली–तपोधन ! इस जीव–जगत् में जो कुछा भी धन है, वह सब क्षणभर में आप अपनी तपस्‍या के प्रभाव से जुटा लेने में समर्थ हैं । अगस्‍त्‍यजी ने कहा– प्रिय ! तुम्‍हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करने से तपस्‍या का क्षय होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताअें, जिससे मेरी तपस्‍या क्षीण न हो । लोपामुद्रा बोली- तपोधन ! मेरे ऋतुकाल का थोड़ा ही समय शेष रहा गया है। मैं जैसा बता चुकी हूँ उसके सिवा और किसी तरह आपसे समागम नहीं करना चाहती । साथ ही मेरी यह भी इच्‍छा नहीं हैकि किसी प्रकार आपके धर्म का लोप हो। इस प्रकार अपने तप एवं धर्म की रक्षा करते हुए जिस तरह सम्‍भव हो उसी तरह आप मरी इच्‍छा पूर्ण करे ।  
‘अन्‍यथा मैं यह जीर्ण शीर्ण काषाय –वस्‍त्र पहनकर आपके साथ समागम नहीं करुँगी। ब्रह्मार्षे! तपस्‍वीजनों का यह पवित्र  आभूषण किसी प्रकार सम्‍भोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं होना चाहिये’ । अगस्‍त्‍यजी ने कहा- सुन्‍दर कटिप्रदेशवाली कल्‍याणी लोपामुद्रे! तुम्‍हारे पिता के घर में जैसे धन–वैभव हैं, वे न तो तुम्‍हारे पास है और न मरे ही पास (फिर ऐसा कैसे हो सकता है?) । लोपामुद्रा बोली–तपोधन ! इस जीव–जगत् में जो कुछा भी धन है, वह सब क्षणभर में आप अपनी तपस्‍या के प्रभाव से जुटा लेने में समर्थ हैं । अगस्‍त्‍यजी ने कहा– प्रिय ! तुम्‍हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करने से तपस्‍या का क्षय होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताअें, जिससे मेरी तपस्‍या क्षीण न हो । लोपामुद्रा बोली- तपोधन ! मेरे ऋतुकाल का थोड़ा ही समय शेष रहा गया है। मैं जैसा बता चुकी हूँ उसके सिवा और किसी तरह आपसे समागम नहीं करना चाहती । साथ ही मेरी यह भी इच्‍छा नहीं हैकि किसी प्रकार आपके धर्म का लोप हो। इस प्रकार अपने तप एवं धर्म की रक्षा करते हुए जिस तरह सम्‍भव हो उसी तरह आप मरी इच्‍छा पूर्ण करे ।  
पंक्ति ६: पंक्ति ६:
अगस्‍त्‍यजी ने कहा– सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धि से यही मनोरथ पाने का निश्‍चय कर लिया है तो मैं धन लाने के लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्‍छानुसार धर्माचरण करो ।
अगस्‍त्‍यजी ने कहा– सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धि से यही मनोरथ पाने का निश्‍चय कर लिया है तो मैं धन लाने के लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्‍छानुसार धर्माचरण करो ।
   
   
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-18|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-20}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-18|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 98 श्लोक1-20}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

११:१५, १३ जुलाई २०१५ का अवतरण

सप्‍तनवतितम (97) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तनवतितम अध्‍याय: श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद

‘अन्‍यथा मैं यह जीर्ण शीर्ण काषाय –वस्‍त्र पहनकर आपके साथ समागम नहीं करुँगी। ब्रह्मार्षे! तपस्‍वीजनों का यह पवित्र आभूषण किसी प्रकार सम्‍भोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं होना चाहिये’ । अगस्‍त्‍यजी ने कहा- सुन्‍दर कटिप्रदेशवाली कल्‍याणी लोपामुद्रे! तुम्‍हारे पिता के घर में जैसे धन–वैभव हैं, वे न तो तुम्‍हारे पास है और न मरे ही पास (फिर ऐसा कैसे हो सकता है?) । लोपामुद्रा बोली–तपोधन ! इस जीव–जगत् में जो कुछा भी धन है, वह सब क्षणभर में आप अपनी तपस्‍या के प्रभाव से जुटा लेने में समर्थ हैं । अगस्‍त्‍यजी ने कहा– प्रिय ! तुम्‍हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करने से तपस्‍या का क्षय होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताअें, जिससे मेरी तपस्‍या क्षीण न हो । लोपामुद्रा बोली- तपोधन ! मेरे ऋतुकाल का थोड़ा ही समय शेष रहा गया है। मैं जैसा बता चुकी हूँ उसके सिवा और किसी तरह आपसे समागम नहीं करना चाहती । साथ ही मेरी यह भी इच्‍छा नहीं हैकि किसी प्रकार आपके धर्म का लोप हो। इस प्रकार अपने तप एवं धर्म की रक्षा करते हुए जिस तरह सम्‍भव हो उसी तरह आप मरी इच्‍छा पूर्ण करे ।

अगस्‍त्‍यजी ने कहा– सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धि से यही मनोरथ पाने का निश्‍चय कर लिया है तो मैं धन लाने के लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्‍छानुसार धर्माचरण करो ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख