"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-14" के अवतरणों में अंतर

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१२:०८, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

कुण्डल लेकर उत्तंक का लौटना, मार्ग में उन कुण्डलों का अपहरण होना तथा इन्द्र और अग्निदेव की कृपा से फिर उन्हें पाकर गुरुपत्नी को देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! रानी मदयन्ती की बात सुनकर उत्तंक ने महाराज मित्रसह (सौदास) के पास जाकर उनसे कोई पहचान माँगी। तब इक्ष्वाकु वंशियों में श्रेष्ठ उन नरेश ने पहचान के रूप में रानी को सुनाने के लिये निम्नांकित सन्देश दिया। सौदास बोले- प्रिये! मैं जिस दुर्गति में पड़ा हूँ, यह मेरे लिये कल्याण करने वाली नहीं हैं तथा इसके सिवा अब दूसरी कोई भी गति नहीं है। मेरे इस विचार को जानकर तुम अपने दोनों मणिमय कुण्डल इन ब्राह्मण देवता को दे डालो। राजा के ऐसा कहने पर उत्तंक ने रानी के पास जाकर पति की कही हुई बात ज्यों-की-त्यों दुहरा दी। महारानी मदयन्ती ने स्वामी का वचन सुनकर उसी समय अपने मणिमय कुण्डल उत्तंक मुनि को दे दिये। उन कुण्डलों को पाकर उत्तंक मुनि पुन: राजा के पास आये और इस प्रकार बोले- ‘पृथ्वीनाथ! आपके गूढ़ वचन का क्या अभिप्राय था, यह मैं सुनना चाहता हूँ। सौदास बोले- ब्रह्मण! क्षत्रियलोग सृष्टि के प्रारंभकाल से ब्राह्मणों की पूजा करते आ रहे हैं तथापि ब्राह्मणों की ओर से भी क्षत्रियों के लिये बहुत से दोष प्रकट हो जाते हैं। मैं सदा ही ब्राह्मणों को प्रणाम किया करता था, किंतु एक ब्राह्मण के ही शाप से मुझे यह दोष- यह दुर्गति प्राप्त हुई है। मैं मदयन्ती के साथ यहाँ रहता हूँ, मुझे इस दुर्गति से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं दिखायी देता। जंगम प्राणियों में श्रेष्ठ विप्रवर! अब इस लोक में रहकर सुख पाना और परलोक में स्वर्गीय सुख भोगने के लिये मुझे दूसरी कोई गति नहीं दिख पड़ती। कोई भी राजा विशेष रूप से ब्राह्मणों के साथ विरोध करके न तो इसी लोक में चैन से रह सकता है और न परलोक में ही सुख पा सकता है। यहीं मेरे गूढ़ संदेश का तात्पर्य है। अच्छा अब आपकी इच्छा के अनुसार ये अपने मणिमय कुण्डल मैंने आपको दे दिये। अब आपने जो प्रतिज्ञा की है, वह सफल कीजिये। उत्तंक ने कहा- राजन्! शत्रुसंतापी नरेश! मैं अपनी प्रतिज्ञा का पालन करूँगा, पुन: आपके अधीन हो जाऊँगा, किंतु इस समय एक प्रश्न पूछने के लिये आपके पास लौटकर आया हूँ। सौदास ने कहा- विप्रवर! आप इच्छानुसार प्रश्न कीजिये। मैं आपकी बात का उत्तर दूँगा। आपके मन में जो भी संदेह होगा अभी उसका निवारण करूँगा। इसमें मुझे कुछ भी विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उत्तंक ने कहा- राजन्! धर्मनिपुण विद्वानों ने उसी को ब्राह्मण कहा है, जो अपनी वाणी संयम करता हो, सत्यवादी हो। जो मित्रों के साथ विषमता का व्यवहार करता है, उसे चोर माना गया है। पृथ्वीनाथ! पुरुषवर! आज आपके साथ मेरी मित्रता हो गयी है, इसलिये आप मुझे अक्छी सलाह दीजिये। आज यहाँ मेरा मनोरथ सफल हो गया है और आप नरभक्षी राक्षस हो गये हैं। ऐसी दशा में आपके पास मेरा फिर लौटकर आना उचित है या नहीं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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