"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 191 श्लोक 21-40": अवतरणों में अंतर
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१२:५५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकनवत्यधिकशततम (191) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
महाराज ! जैसे वर्षाकाल में गर्जते हुए विधुत सहित मेघ सुशोभित होते है, उसी प्रकार युद्ध के मुहाने पर परस्पर मिले हुए वे घोड़े शोभा पाते थे। उस समय अमेय बल सम्पन्न विप्रवर द्रोणाचार्य ने धृष्टधुम्न के रथ के ईषाबन्ध, चक्रबन्ध तथा रथ बन्ध को नष्ट कर दिया था। धनुष ध्वज और सारथि के नष्ट हो जाने पर भारी विपत्त्िा में पड़कर पांचाल राजकुमार वीर धृष्टधुम्न ने गदा उठायी। उसके द्वारा चलायी जानेवाली उस गदा को सत्य पराक्रमी महारथी द्रोण ने कुपित हो बाणों द्वारा नष्ट कर दिया। उस गदा को द्रोणाचार्य के बाणों से नष्ट हुई देखकर पुरूष सिंह धृष्टधुम्न ने सौ चन्द्राकार चिन्हों से युक्त चमकीली ढाल और चमचमाती हुई तलवार हाथ में ले ली। उस अवस्था में पांचाल राजकुमार ने यह नि: संदेह ठीक मान लिया कि अब आचार्य प्रवर महात्मा द्रोण के वध का समय आ पहुंचा है। उस समय उन्होंने तलवार और सौ चन्द्र चिन्हों वाली ढाल लेकर अपने रथ की ईषा के मार्ग से रथ की बैठक में बैठे हुए द्रोण पर आक्रमण किया। तत्पश्चात महारथी धृष्टधुम्न ने दुष्कर कर्म करने की इच्छा से उस रणभूमि में आचार्य द्रोण की छाती में तलवार भोंक देने का विचार किया। वे रथ के जुए के ठीक बीच में, जुए के बन्धनों पर और द्रोणाचार्य के घोड़ो के पिछले भागों पर पैर जमाकर खड़े हो गये। उनके इस कार्य की सभी सैनिको ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे जूए के मध्य भाग में और द्रोणाचार्य के लाल घोड़ो की पीठ पर पैर रखकर खड़े थे । उस अवस्था में द्रोणाचार्य को उनके उपर प्रहार करने का कोई अवसर ही नहीं दिखायी देता था, यह एक अद्भभूत सी बात हुई। जैसे मांस के टुकड़े के लोभ से विचरते हुए बाज का बडे वेग से आक्रमण होता है, उसी प्रकार रण भूमि में द्रोणाचार्य और धृष्टधुम्न के परस्पर वेगपूर्वक आक्रमण होते थे। द्रोणाचार्य ने लाल घोड़ों को बचाते हुए रथ शाक्ति का प्रहार करके बारी-बारी से कबूतर के समान रंगवाले सभी घोड़ों को मार डाला। प्रजानाथ ! धृष्टधुम्न के वे घोड़े मारे जाकर पृथ्वी पर गिर पड़े और लाल रंग वाले रथ के बन्धन से मुक्त हो गये। विप्रवर द्रोण के द्वारा अपने घोड़ो को मारा गया देखा योद्धाओं में श्रेष्ठ पार्षतवंशी महारथी द्रुपदकुमार सहन न कर सके। राजन् ! रथहीन हो जाने पर खंडधारियों में श्रेष्ठ धृष्टधुम्न खंड हाथ में लेकर द्रोणाचार्य पर उसी प्रकार टूट पडे, जैसे गरूड़ किसी सर्प पर झपटते हैं। नरेश्वर ! द्रोण के वध की इच्छा रखने वाले धृष्टधुम्न का रूप पूर्व काल में हिरण्यकशिपु के वध के लिये उधत हुए नृसिंह रूप धारी भगवान विष्णु के समान प्रतीत होता था। कुरूनन्दन ! रण में विचरते हुए धृष्टधुम्न ने उस समय तलवार के इक्कीस प्रकार के विविध उत्तम हाथ दिखाये। उन्होनें ढाल-तलवार लेकर भ्रान्त, उदान्त, आविद्ध, आलुप्त, प्रसूत, सृत, परिवृत, सम्पात, समुदीर्ण, भारत, कौशिक तथा सात्वत आदि मार्गों को अपनी शिक्षा के अनुसार दिखलाया। वे द्रोणचार्य का अन्त करने की इच्छा से युद्ध में तलवार के उपर्युक्त हाथ दिखाते हुए विचर रहे थे। ढाल-तलवार लेकर विचरते हुए धृष्टधुम्न के उन विचित्र पैंतरों को देखकर रणभूमि में आये हुए योद्धा और देवता आश्चर्य चकित हो उठे थे।
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